Wednesday, 1 August 2018

मेरी जीवनी....

मेरा नाम सोहन सिंह है मेरी दिनचर्या सुबह 5.30 से शुरू हो जाती है जिसमें में सुबह के वक्त टहलने जाता हूं जो करीब 1 घंटे तक चलता है और उसके बाद थोड़ी बहुत वरजिस भी करता हूं जिससे की में आने वाली दिनचर्याें में स्वस्थ्य रहूं और रोजना की तरह ही अपने काम को पूरी ईमानदारी और मेहनत से करता रहूं।मैं मूल निवासी भारत में स्थिति राज्य उतर प्रदेश का हूं। मेरा जन्म जिला अलीगढ के छोटे से गांव बढ़ारी खुर्द का है। मेरे गांव में करीब मेरे 6 साल बीते और मेरे पिताजी मेरी अच्छी शिक्षा के लिए मुझे दिल्ली ले आये जिसमें मेरी प्राथमिक शिक्षा एक प्राइवेट् स्कूल जिसका नाम सोनिया पब्लिक स्कूल था में कराई लेकिन किसी परिस्थिति वश वह स्कूल मुझे छोड़ना पड़ा जिसके बाद मैंने पूर्वी विनोद नगर स्थित नगर निगम के विद्यालय में दाखिला लिया जहां पर मैंने अपनी 5 वीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की और उस समय दिल्ली में 5 वीं कक्षा में बोर्ड हुआ करता था, जिसको पास करके ही दिल्ली सरकार के राजकीय श्रेणी के विद्यालयों में प्रवेश मिलता था। 5वीं कक्षा उतीर्ण करने के बाद, मेरा राजकीय बाल विद्यालय, पूर्वीय विनोद नगर, दिल्ली में दाखिला हुआ। यह स्कूल पूर्वीय विनोद नगर में है, यह आज भी टैंट वाले स्कूल के नाम से जाना जाता है। यहां पर मैंने मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ाई की। क्योंकि हम अपने शुरूआती दिनों में दिल्ली जैसे महानगर में किराये पर रहा करते थे। सन् 1998 में मेरे पिताजी ने बुराड़ी जोकि उतरी दिल्ली में स्थित है वहां पर प्लाॅट लिया और आनन्-फानन् में वह प्लाॅट बनवाया और हम वहां पर स्थानांतरण हुए। जिसके बाद मैंने अपनी पढ़ाई का शेष बचा भाग जोकि 9वीं कक्षा थी उसमें दाखिला लिया। बुराड़ी के सर्वोदय बाल विद्यालय से ही 10वीं और 12वीं कक्षा, दिल्ली के सी.बी.ए.सी बोर्ड से उतीर्ण की। 12वीं कक्षा के बाद आगे की शिक्षा के लिए मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस काॅलेज में दाखिला लिया और यहां से मैंने हिन्दी स्नातक में डिग्री प्राप्त की। यह वो दिन थे जब मेरी लेखिनी में सुधार हुआ और मुझे कविताएं, लेख व्यंगत्मक टिप्पणी लिखने को शौक जागा। मैंने रामजस काॅलेज की पत्रिका में कुछ कविताएं लिखी जिसकी सरहाना मुझे मिली। यही वह समय था जहां पर में पत्राकारिता के प्रति समर्पित हुआ और मैंने डाॅ. भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा से पत्रकारिता में स्नाकोतर की और करीब 6 हफ्तों की विश्वविद्यालय के कम्युनिटी रेडियो में इंटरनशिप की और आर.जे की ट्रनिंग भी ली, इसी दौरान मैंने आगरा के स्वराज टाईम्स, अखबार और ए. टीवी न्यूज चैन में इंटरनशिप भी की। जिसके बाद बुराड़ी में स्थित राज पाॅकेट डिपो में मैंने लगभग 1 वर्ष हिन्दी प्रोफरीडर का काम काम किया। इसके बाद मैंने फाॅरवर्ड प्रेस पत्रिका का दामन थाम जिसमें मैंने एक फ्रेशर्स के तौर पर काम आरम्भ किया जहां मैंने कनिष्ठ सह-संपादक और पत्रकार के तौर पर काम सीखा। यहां पर मैंने 2 वर्ष काम किया जिसके बाद मैंने हाॅरिजोन प्रिंटर एण्ड पब्लिकेशन हाऊस में फ्रिलांस काम किया। यह मेरा अतिरिक्त वेतन का स्रोत था जिसके बाद में कुल्लू की हसिन वादियों में अपना हिमाचल सप्ताहिक पत्र से जुड़ा जहां पर मैंने करीब एक वर्ष तक हसीन वादियों में रहते हुए काम किया।

Sunday, 8 July 2018

तोमर कॉलोनी की आरसी और नालियों की हालत है खराब

बुराड़ी स्थित तोमर कॉलोनी की गलियों और नालियों का काम लगभग खत्म हो गया है जोकि पूरे 3 वर्ष की अवधि में खत्म हुआ है, जिसका श्रेय किसी कॉलोनी के निवासियों को जाता है जिनके अथक प्रयास से तोमर कॉलोनी का काम तय समय से अत्यधिक 2 वर्ष के अंतराल में हुआ जोकि कॉलोनी वालों की लिए एक उपलब्धि से कम नही है,
यह उपलब्धि अब आम आदमी पर भारी पड़ रही है क्योंकि यह उपलब्धि 3 वर्ष की है तो यह तो तय है कि कॉलोनी के काम कितना टिकाऊ हुआ होगा जिसका प्रमाण यहां की टिकाऊ नालियां , टिकाऊ आर. सी वाली सड़क कह रही है जो  बनने के 4 घण्टे बाद ही फट गई थी जिसकी शिकायत यहां के जे ई तक को दी गई लेकिन कोई कार्यवाही नही हुई , कॉलोनी के लोगों को तो यही तस्सली रही कि कम से कम कॉलोनी का काम तो खत्म हुआ, लेकिन इस फ़टी सड़क को नाहि एमले ने देखा है नही अधिकारियों ने , मानसून में अब तो आलम यह है कि यह दरार लगातार गहरी हो रही है ।
दूसरी ओर इनके द्वारा बनाई गई नालियां की हालत भी खराब है हर जगह से टिकाऊ मसाला झड़ रहा है और पानी न निकले इसलिए लोगों ने जगह जगह जालियां लगा रखी है और हर जगह नालियां पट पड़ी है जिनको साफ करने का जिम्मा न mcd ले रही और नही कॉलोनी के लोग जिसके चलते मॉनसून के मौसम में पानी न निकलने का संकट पैदा हो गया है जिसके चलते पानी ठहर रहा है और मछर पैदा होने की पूरी पूरी सम्भावनाये बन रही है जिसके निवारण हेतु निगम पार्षद को सूचित किया गया और समय पर रुके पानी में दवाई भी डाली जाती है लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है जिसका निवारण नालियां साफ करके ही किया जा सकता है, लेकिन इस और नाहि तोमर कॉलोनी की जनता सक्रिय दिख रही और नाहि प्रशासन सक्रिय दिख रहा। जिसको लेकर rwa का गठन किया गया । जिसके चलते कुछ कामों में तेजी आई , लेकिन पानी की समस्या मॉनसून मैं। जस की तस है ,

Wednesday, 20 June 2018

छूट गया पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी का साथ।

कहने वालों के मुंह पचास होते हैं करने वाले बहुत कम, लेकिन जम्मू कश्मीर मे हाल में जो कुछ हुआ बहुत पहले होना चाहिए था जिससे की हमारी सेना के सैनिक  शहीद न होते। और पाक परस्त कश्मीर के अलगाववादियों को उनकी औकात पहले ही दिख जाती।
कहने वाले तो पहले भी मोदी जी को कठघर में खड़ा कर रहे थे। लेकिन भाजपा ने अपना वह अद्म्य साहस सरकार में रहते हुए भी दिखाया था, जो कांग्रेस पार्टी कभी न दिखा पाई जम्मू कश्मीर में पिछले 3 वर्षों में जो कुछ कश्मीर में घटा उसे पूरा विश्व जानता है कि उसमे किन लोगों और पूर्व में किन सरकारों की गलतियां थी जिसकी बयानगी मोदी जी की सरकार को उठानी पड़ी ।
भाजपा ने उस चुनौती को भरपूर तरीक्के से निभाया जिसको कभी कांग्रेस और अन्य दल निभा नहीं पाये थे उन्होंने मात्र उपरी ढोलों का राग छेड़ा जिसको न तो जनता ने सराहा था न ही भारतीय सेना ने उस वक्त सैनिकों के हाथ बांध दिये जाते थे जिससे सेना के प्रमुख सरकारों से खफा रहते थे , वह वक्त गवाही देता है की भारतीय सेना ने आंतकिस्तान के हाथ ही खाये थे कभी उन्हें मुंहतोड़ जवाब नहीं देने दिया गया और अमन की आड़ में 2009 दिल्ली जैसे शहर में 6-7 जगह बम ब्लास्ट करवाये। जिसकी आहट से आज भी दिल्ली कांप जाती है यह वही समय था जब भारत के शासक मनमोहन सिंह थे जिनको ’मौन सिंह‘ की उपाधि दी गई थी। न उस वक्त कश्मीर में खून रूका था और न अब रूक रहा है सरकार की तरफ से कडा़ रूख अपनाया जा रहा है जिसके चलते विपक्षी दज चिल्ला रहे हैंे कि पत्थर बाजों को क्यों मार जा रहा है यहां तक कि सेना के प्रमुख को गली का गुंडा तक बता दिया गया, जो बेहद ही शर्मनाक है ।
सरकार ने पीडीपी से गठबंधन को तोड़ दिया है जिस पर विरोधी कह रहे हैं कि पहले क्यों यह गठबंधन नहीं तोड़ा गया। कहीं तक उनकी बात भी सत्य प्रतीत होती है लेकिन इसमें भी अपवाद है वह यह कि यदि यह गठबंधन पहले ही टूट जाता तो पीडीपी सरकार की मंशा का पता नहीं चल पाता की पीडीपी सच में यह चाहती है कि कश्मीर भारत का हिस्सा बन पाये या नहीं, जिसका पता पिछले 3 सालों में केन्द्र सरकार का चल गया जिसमें केन्द्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी सरकार को मौका दिया की वह अपनी मुख्यमंत्री को चुने लेकिन महबूबा मूफ्ती ने पिछले 3 वर्षों में पत्थरबाजों को सहमति दी कि वह भारतीय सेना पर पत्थरबाजी कर सके जिसके चलते वहां पत्थरबाजों को पाकिस्तान फंडिंग करता जो वहां के आंतकवादियों और पत्थरबाजों को क्षय देता है। जिससे केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि भारत के सभी राजनैतिक दल परेशान थे जिसके चलते हर दिन कोई न कोई सेना पर हमला कर देता था जिसका मुंह तोड़ जवाब सेना देने में सक्षम होती यदि उनके पत्थर बाजों पर सेना सख्ती दिखाती तो विपक्ष में बैठे रहनुमा शोर मचाना शुरू कर देते की पत्थरबाज अभी बच्चे हंै उन पर पलेटगन से फायर नहीं करना चाहिए। जिसके चलते भारतीय जनता पार्टी सेना को आदेश देने मंे हिचकती नजर आती थी जिसका फायदा लेकर आतंकी आतंक की वारदात कर के भाग जाया करते थे। जिसके चलते भरतीय सरकार और पीडीपी को गठबंधन टूटा। और अब वहां राज्यपाल शासन लागू हो गया है ।

Thursday, 31 May 2018

आखिकार जीत का ठिकरा गठबंधन सरकार ने वोटिंग मशीनों पर क्यों नहीं फोड़ा।

31 मई को उपचुनावों के नतीजों में गठबंधन सरकार की जीत हुई और भाजपा की हार हुई भाजपा मात्र 2 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी जिससे कैराना सीट को भविष्य की रणनीति माना जा रहा है जिसकी जीत से यह तो पक्का हो गया कि 2019 के चुनावों में गठबंधन सरकार का जीतना लगभग तय है जो कि आने वाली भारतीय राजनीति पर अपना वर्चस्व रखेगा।
कैराना में मिली जीत से गठबंधन की सरकार को यह विश्वास हो चला है कि आने वाले 2019 चुनावों में यह फाॅर्मूला कामयाब होगा जिसका टेªलर उपचुनाव में लाॅच हो गया है लेकिन दूसरी और उपचुनावों में भाजपा गठबंधन सरकार से मात्र कुछ ही वोट के अंतर से हारी है जिससे ये भी पता चलता है कि गठबंधन होने के बाद भी भाजपा को दमखम कम नहीं हुआ है जिसको देखकर गठबंधन की सरकार को अपनी रणनीति की पुर्नविवेचना करनी होगी की कहां पर हम भाजपा से अच्छा कर सकते जिससे की 2019 के चुनावों में भाजपा को हरा सके। यदि गठबंधन सराकर द्वारा अपने रणनीति पर पुर्नविवेचना नही की गई तो 2019 एक बार फिर भाजपा दमखम से अपने पैर पसारेगी जो जिससे गठबंधन की सरकार में लिप्त राहुल, मायावती, अखिलेश, जैसे दिग्गज नेता फिर से वोटिंग मशीन पर अपनी हार का ठिकरा फोड़ते नजर आ सकते है
यदि हम गठबंधन की सरकार की विवेचना करें तो उनकी नजरों में इस बार वोटिंग मशीनों से कोई छेड़छाड़ की वारदात नहीं हुई हां मशीने कुछ खराब जरूर हुई थी जिसमें गठबंधन सरकार ने यहां तक कह दिया था कि यदि गठबंधन की हार हुई तो वोटिंग मशीन में चुनाव आयोग ने गड़बड़ की है लेकिन चुनाव का नतीजा गठबंधन के पक्ष में आया है इसलिये अब वोटिंग मशीनों में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।
सबकुछ देखने से तो यही प्रतीत होता है कि हार होती है तो वोटिंग मशीनों को चुनाव आयोग ने पहले से ही भाजपा के पक्ष में कर रखा है अगर जीत होती है तो वोटिंग ही मात्र निष्पक्ष वोटिंग कराने का सहारा है

Wednesday, 16 May 2018

दल-बदल कानून का अर्थ


दल-बदल का साधारण अर्थ एक-दल से दूसरे दल में सम्मिलित होना हैं। संविधान के अनुसार भारत में निम्नलिखित स्थितियाँ सम्मिलित हैं -
किसी विधायक का किसी दल के टिकट पर निर्वाचित होकर उसे छोड़ देना और अन्य किसी दल में शामिल हो जाना।
मौलिक सिध्दान्तों पर विधायक का अपनी पार्टी की नीति के विरुध्द योगदान करना।
किसी दल को छोड़ने के बाद विधायक का निर्दलीय रहना।
परन्तु पार्टी से निष्कासित किए जाने पर यह नियम लागू नहीं होगा।
सारी स्थितियों पर यदि विचार करें तो दल बदल की स्थिति तब होती है जब किसी भी दल के सांसद या विधायक अपनी मर्जी से पार्टी छोड़ते हैं या पार्टी व्हिप की अवहेलना करते हैं। इस स्थिति में उनकी सदस्यता को समाप्त किया जा सकता है और उनपर दल बदल निरोधक कानून लागू होगा।
पर यदि किसी पार्टी के एक साथ दो तिहाई सांसद या विधायक (पहले ये संख्या एक तिहाई थी) पार्टी छोड़ते हैं तो उन पर ये कानून लागू नहीं होगा पर उन्हें अपना स्वतन्त्र दल बनाने की अनुमति नहीं है वो किसी दूसरे दल में शामिल हो सकते हैं।
दलबदल विरोधी कानून
संविधान के दलबदल विरोधी कानून के संशोधित अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 का संबंध संसद तथा राज्य विधानसभाओं में दल परिवर्तन के आधार पर सीटों से छुट्टी और अयोग्यता के कुछ प्रावधानों के बारे में है। दलबदल विरोधी कानून भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची जोड़ा गया है जिसे संविधान के 52वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 1985 में पारित किया गया था। इस कानून में विभिन्न संवैधानिक प्रावधान थे और इसकी विभिन्न आधारों पर आलोचना भी हुयी थी।
अधिनियम की विशेषताएं
दलबदल विरोधी कानून की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है:
यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो विधान सभा या किसी राज्य की विधान परिषद की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
दसवीं अनुसूची के अलावा- संविधान की नौवीं अनुसूची के बाद, दसवीं अनुसूची को शामिल किया गया था जिसमें अनुच्छेद 102 (2) और 191 (2) को शामिल किया गया था।
संवैधानिक प्रावधान निम्नवत् हैं:
75 (1 क) यह बताता है कि प्रधानमंत्री, सहित मंत्रियों की कुल संख्या, मंत्री परिषद लोक सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
75 (1 ख) यह बताता है कि संसद या संसद के सदस्य जो किसी भी पार्टी से संबंध रखते हैं और सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित किया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है।
102 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिए अयोग्य होगा।
164 (1 क) यह बताता है कि मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
164 (1 ख) यह बताता है कि किसी राज्य के किसी भी विधानमंडल सदन के सदस्य चाहे वह विधानसभा सभा सदस्य हो या विधान परिषद का सदस्य, वह किसी भी पार्टी से संबंध रखता हो और वह उस सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है।
191 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह राज्य के किसी भी सदन चाहे वो विधान सभा हो या विधान परिषद, का सदस्य बनने के लिए भी अयोग्य होगा।
361 ख - लाभप्रद राजनीतिक पद पर नियुक्ति के लिए अयोग्यता।
अधिनियम का आलोचनात्मक मूल्यांकन
दलबदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक घटना के रूप में माना गया है। इसने विधायकों या सांसदों को राजनैतिक माईंड सेट के साथ नैतिक और समकालीक राजनीति करने को मजबूर कर दिया है। दलबदल विरोधी कानून ने राजनेताओं को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए गियर शिफ्ट करने के लिए हतोत्साहित किया। हालांकि, इस अधिनियम में कई कमियां भी हैं और यहां तक कि यह कई बार दलबदल को रोकने में विफल भी रहा है। इसे निम्नलिखित कथनों से और गंभीर तरीके से समझा जा सकता है:
लाभ -
पार्टी के प्रति निष्ठा के बदलाव को रोकने से सरकार को स्थिरता प्रदान करता है।
पार्टी के समर्थन के साथ और पार्टी के घोषणापत्रों के आधार पर निर्वाचित उम्मीदवारों को पार्टी की नीतियों के प्रति वफादार बनाए रखता है।
इसके अलावा पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है।
नुकसान -
दलों को बदलने से सांसदों को रोकने से यह सरकार की संसद और लोगों के प्रति जवाबदेही कम कर देता है।
पार्टी की नीतियों के खिलाफ असंतोष को रोकने से सदस्य की बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ हस्तक्षेप करता है।
इसलिए, कानून का मुख्य उद्देश्य "राजनीतिक दलबदल की बुराई' से निपटने या मुकाबला करना था। एक सदस्य तब अयोग्य घोषित हो सकता है जब वह "स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता को त्याग देता है" और जब वह पार्टी द्वारा जारी किए गये दिशा निर्देश के विपरीत वोट (या पूर्व अनुज्ञा) करता है/करती है।

Tuesday, 15 May 2018

अब तय करेंगें राज्यपाल किसकी बनेगी सरकार

कर्णाटक में कल का दिन (बहुमत की गिनती) बहुत खास था कल (15.05.2018) सियासी पारा अपने चर्म पर था जिसके रण में कई उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे थे जिसमें कांग्रेस (78) के बाद भाजपा (104) को अपना किला फतह करना था जिसके शुरूआती रूझान को देख कर किसी को कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि शुरूवाती रूझानों में कांग्रेस ने बाजी मारी थी जिसके चलते भाजपा पिछड़ गई थी लेकिन जैसे गिनती का दौर बढ़ा तो फिर बाजी भाजपा के हाथ रही जिसके चलते कांग्रेस (78) के हाथ पैरों पर सूजन सी दिखने लगी सभी में हड़बड़ाहट का दौर शुरू हो गया कि ये कैसा गणित बिगड़ा और बड़बोलों के बोल मंद पड़ गए। जिसमें कहीं न कहीं वहां के मतदाताओं ने चेता दिया कि कांग्रेस का अब वह पिंड छोड़ देना चाहते हैं कांग्र्रेस 2013 के मुकाबले 2018 में बेहद दयनीय स्थिति में पंहुच गई है उसे अपने से कम सीटों वाली पार्टी जेडीएस (38) के साथ गठबंधन का एलान समय रहते कर दिया जिसका सीधा असर कांग्रेस की साख पर था जिसे बचाने के लिए कांग्रेस ने अपने आप से समझौता करते हुए कम सीटों वाली जेडीएस के हाथ कर्णाटक की कमान सौपने का  फैसला कर लिया वो भी लिखित में, लेकिन असली गणित तो राज्यपाल को तय करना था। 
शाम होते होते उधर भाजपा (104) का भी गणित बिगड़ता दिखा जिसके चलते उसे अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार (112) से वंचित होना पड़ा और अब उसे भी गठबंधन की सरकार बनाने में व्यस्त होना पड़ेगा जिससे दोनों महत्वपूर्ण पार्टियां दोहराव के रास्ते पर आगे बढ़ चली हैं जिसमें कहीं न कहीं कांग्रेस अपनी सरकार बनानी चाहेगी जिससे की उसकी साख पर बट्टा न लगे , जिसकी बयानगी मात्र कर्णाटक के राज्यपाल तय कर सकते हैं 
भाजपा के द्वारा बनाई गई रणनीति में कांग्रेस के अनुसूचित जाति सीटों (28)  को सेंध लगााकर अपनी ओर करना का श्रेय उनकी चुनाव में बढ़ती सीटें हैं जिनके द्वारा वह 104 सीटें जीतने में कामयाब रही जो भाजपा की रणनीति का एक हिस्सा थी, जिसके चलते सिद्वरम्मैया को उन्हीं की सीट पर हार का समाना करना पड़ा जो पूरी कांग्रेस की कमर तोड़ गया। 

Friday, 11 May 2018

दो विकल्प होने के बाद भी तीसरा विकल्प क्या ?

तार्किकता के मापदंड पर खबरों का आकलन करें तो कोई भी राजनैतिक खबर सही मायनों में सही नही लगती क्योंकि राजनेताओं के वादों में बहुत ही खिलाफत दिखती है वादे और वाद में उनके बहुत ही निरंतरता है जिसमें नए नेता हों या गुड़ी नेता सब नजदीक आकर, एक जैसे ही प्रतीत होते हैं जिसमें समाज ही पीसता है लेकिन नेता अपनी साख हम लोगों के द्वारा ही बनता है और हमें सालों साल मूढ़ बनाता है जिसका खामियाजा हम एक दूसरे के खिलाफ ही आजमाते हैं। जो हमारी मूर्खता और अज्ञानता को ही परोसती है जिसमें हम रहना नहीं चाहते लेकिन उसमें रहते हैं जिसे हम अपनी अज्ञानता कहें या राजनेताआंे की बुद्विमता कहें लेकिन कुछ भी हो पीसता तो आम आदमी ही है जो रहते हुए भी न के बराबर है।
यदि हम तार्किकता से सुसंगत हों तो प्रश्न यहां यह आता है कि तीसरा विकल्प क्या है लेकिन तीसरा विकल्प ही हमंे मूर्ख बना जाए तो कोई चैथा विकल्प भी बचता है इस प्रश्न का उत्तर ‘न’ में ही समाने आता है जो कोई विकल्प ही नही बन सकता। इसलिए दो ही सुसंगत प्रतीत होते है बावजूद इसके की हम किस को ज्यादा पंसद करें। यदि हमें किसी को लंबा समय दे दें तो उसकी कार्यप्रणाली, कार्य क्रिया को समझने में सलयता रहती है जिसका आकलंन हमें कुछ वर्षो बाद या कुछ समय बाद ही पता चल जाता है जो उसकी कार्य क्षमता का अंक प्रमाण पत्र हो सकता है लकिन इसके बाबजूद भी हमें उसको ही क्यों पंसद करते हैं जो परीक्षा में असफल हुआ है। 
भारतीय राजनीति इसका एक सक्षम उदाहरण है जिसके अंतःमन में 1947 से कांग्रेस ही छीपी थी। जिसने कुछ मुद्दों पर तो मोर्चा मारा है लेकिन कई मोर्चाे पर वह विफल भी रही है वह मोर्चे भारत के जी का जंजाल बने हुए हैं। जिनको कामोवेश उस समय की राजनीती ने हल नहीं होने दिये जो अब नासूर हो रहे है जिसमें सबसे बड़ा उदाहरण कश्मीर है जिसके चलते वर्तमान में भारत उबल रहा है बरसों से चली आ रही लड़ाई अब तक थमी नही। वहां से हिन्दूवासियों को खदेड़ा गया तब मोर्चे नहीं खुले, लेकिन अब मोर्चे खुले हैं जब कुछ नेता पाकिस्तान का गुणगान करते हैं जिन्हें भारत से राजनीति में आन्नद आता है लेकिन हमारी सरकारो की इच्छा शक्ति यहां दिखाई नहीं देती अगर दिखाई देती भी है तो विपक्ष अघोषित विलाप छेड़ देता है जो सेना की कार्यवाही में छिंटाकशी का कार्य करती है जिसका हल शायद ही कभी आ पाए।
ये तो मात्र एक ही उदारण है ऐसे कई उदाहरण है जो भारतीय राजनीति की कलई खोलने के लिए ही जन्में हैं जिनमें एक उदाहरण दिल्ली का भी है जिसमेे ‘‘आम आदमी की पार्टी’’ कही जाने वाले राजनैतिक दल को जन्म दिया। जिसने पिछले कुछ वर्षों में सभी को भ्रमित किया है जिसकी कार्यशैली निष्पकक्ष नहीं है जो ‘‘कहती कुछ और है करती कुछ है’’ यह वही विकल्प था जिसकी मैंने दूसरी प्रस्तावना में बात की है जिसको तीसरा विकल्प समझ कर दिल्ली की जनता ने पलकों पर बिठाया। लेकिन इस विकल्प ने ही जनता को ठगा ये कहकर की ‘‘हम सबसे अच्छे हैं बाकि सब चोर’’ हैं। लेकिन सही मायनों में चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं यह कहावत यहां आम आदमी पार्टी ने पुख्ता कर दी। जिसने गत् 4 वर्षों में दिल्ली के विकास को 5 वर्ष पीछे धकेला है जो निरंतर लड़ाई-झगड़ों में व्यस्त रही है कभी राज्यपाल के साथ तो कभी प्रशासनिक अधिकारियों के साथ, दिल्ली के आम नागरिक को भुगतना पड़ा। लेकिन इसमें सारी गलती इनकी भी नहीं कह सकते यहां कांग्रेस, भाजपा का मुद्दा भी उछल कर आंखों के समीप है। जिसको न चाहते हुए भी छिपाया नहीं जा सकता। ये वही पार्टियां हैं जिन्होने इन आकूतों को सत्ता में आने का मौका दिया जो पहले से ही भूख से बिलक रहंे थे
- सोहन सिंह