सबसे बडा अधर्म क्या है ? और सबसे बडा धर्म क्या है ? ये दो ऐसे प्रश्न है जिनका आजतक कोई सार्थक अर्थ नहीं मिला । मिली है तो,धर्म की और अधर्म की परिभाषा । क्या धर्म इतने से संतोष्ठ है। धर्म गुरूओं ने कहा कि, धर्म का महत्व किसी समुदाय को एकत्र करने और उनके बीच भाई चारा बनने को कहते है धर्म ही सबको एक करता है और धर्म से बडा कुछ नहीं लेकिन धर्म का क्या सच्च में सबको एक करता है ?
वर्तमान में धर्म का एक बडा आडबंर भारत को लूट रहा है जहां एक और धर्म के प्रवचन साधु-महात्मा बताते है और एक आम आदमी धर्म की परिभाषा को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से जुडकर चलता है और हर मोड पर अपने आपको ठगा सा महसूस करता है लेकिन इन सबके बावजूद भी वो इस धर्म के मार्ग पर आग्रसर है क्योंकि उसका मानना है कि धर्म बिन सब नाश है अर्थात धर्म के बिना कुछ नहीं है क्योंकि धर्म ही हमें सीखाता है कि हमें किस मार्ग का चयन करना चाहिए और किस मार्ग को अपने चलने योग्य बनाना चाहिए और जो मार्ग चलने योग्य नहीं उसका परित्याग करना ही उचित है लेकिन वर्तमान समाज में धर्म में रूढिवादिता का समावेश हो रहा है ये लोग को जोड तो रहा है लेकिन एक समुदाय के अधीन, वो समुदाय मात्र अपने हित को साध रहा है लेकिन उसी समुदाय के इतिहास के पन्नों को देखें तो हमें पता लगता है कि कही न कही उसने हम सब को अपने अधीन करने का पहले भी भरसक प्रयास किया है और अपने द्वारा, अपने हित में मोडा है।
लेकिन आज भी धर्म की परिभाषा को जाने तो धर्म दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है दूसरा अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है। यही कुरूपता आज विश्व के समक्ष और सबसे ज्यादा भारत जैसे धार्मिक देश में है क्योंकि भारत ही पूरे विश्व में एक मात्र ऐसा देश है जहां पर धर्म और जाति का बाजार सज रहा है और संवर रहा है अगर इस हिसाब से देखा जाए तो धर्म कमाउ पूत है और जो इसे चला रहें है वो इसके पितामह है लेकिन धर्म की सार्थक परिभाषा का बोद्व किसी को नहीं है चाहे वो पंडा हो या कोई मजदूर और सब धर्म की अंधी चाल की आंधी में बहे जा रहे है और उस आंधी का रूख अपने पक्ष में करने वाले वे साधु-संत है जो आज अपने इस धर्म के व्यापार को अपनी जीविका समझ बैठे है और कहीं न कहीं अपनी स्वार्थ सिद्वी के कारण से, समाज को धर्म की नई परिभाषा से अवगत करा रहें हैं इस धर्म भेड चाल में बाजार में नित नए बाबाओं का आना हो रहा है कोई अपने आपको भगवान कहता है तो किसी ने भगवान को अपने वश में ही कर लिया है और किसी ने धर्म को आगे बढाने हेतू अपने मरण्ा की तिथी तक तय कर दी है और धर्म का चोला उडकर अपने पुर्नजन्म तक की बात कह डाली है।
इससे बडा दुर्भाग्य वर्तमान में भारत वंश का कुछ नहीं हो सकता ।
-सोहन सिंह
वर्तमान में धर्म का एक बडा आडबंर भारत को लूट रहा है जहां एक और धर्म के प्रवचन साधु-महात्मा बताते है और एक आम आदमी धर्म की परिभाषा को अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से जुडकर चलता है और हर मोड पर अपने आपको ठगा सा महसूस करता है लेकिन इन सबके बावजूद भी वो इस धर्म के मार्ग पर आग्रसर है क्योंकि उसका मानना है कि धर्म बिन सब नाश है अर्थात धर्म के बिना कुछ नहीं है क्योंकि धर्म ही हमें सीखाता है कि हमें किस मार्ग का चयन करना चाहिए और किस मार्ग को अपने चलने योग्य बनाना चाहिए और जो मार्ग चलने योग्य नहीं उसका परित्याग करना ही उचित है लेकिन वर्तमान समाज में धर्म में रूढिवादिता का समावेश हो रहा है ये लोग को जोड तो रहा है लेकिन एक समुदाय के अधीन, वो समुदाय मात्र अपने हित को साध रहा है लेकिन उसी समुदाय के इतिहास के पन्नों को देखें तो हमें पता लगता है कि कही न कही उसने हम सब को अपने अधीन करने का पहले भी भरसक प्रयास किया है और अपने द्वारा, अपने हित में मोडा है।
लेकिन आज भी धर्म की परिभाषा को जाने तो धर्म दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है दूसरा अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है। यही कुरूपता आज विश्व के समक्ष और सबसे ज्यादा भारत जैसे धार्मिक देश में है क्योंकि भारत ही पूरे विश्व में एक मात्र ऐसा देश है जहां पर धर्म और जाति का बाजार सज रहा है और संवर रहा है अगर इस हिसाब से देखा जाए तो धर्म कमाउ पूत है और जो इसे चला रहें है वो इसके पितामह है लेकिन धर्म की सार्थक परिभाषा का बोद्व किसी को नहीं है चाहे वो पंडा हो या कोई मजदूर और सब धर्म की अंधी चाल की आंधी में बहे जा रहे है और उस आंधी का रूख अपने पक्ष में करने वाले वे साधु-संत है जो आज अपने इस धर्म के व्यापार को अपनी जीविका समझ बैठे है और कहीं न कहीं अपनी स्वार्थ सिद्वी के कारण से, समाज को धर्म की नई परिभाषा से अवगत करा रहें हैं इस धर्म भेड चाल में बाजार में नित नए बाबाओं का आना हो रहा है कोई अपने आपको भगवान कहता है तो किसी ने भगवान को अपने वश में ही कर लिया है और किसी ने धर्म को आगे बढाने हेतू अपने मरण्ा की तिथी तक तय कर दी है और धर्म का चोला उडकर अपने पुर्नजन्म तक की बात कह डाली है।
इससे बडा दुर्भाग्य वर्तमान में भारत वंश का कुछ नहीं हो सकता ।
-सोहन सिंह