Friday, 28 August 2015

स्त्री अस्मिता मात्र गहना है क्या ?


एक स्त्री की अस्मिता, उसका परिधान कैसे हो सकता है, लाज-लज्जा, मोह और कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा से निभाना और उस परिस्थिति को गृहण कर, उसके आधार पर जीना । जो कभी मां ने और बची-कुची समझ समाज ने दी, उसे सिरमौर बनाकर जीना, कोई आसान काम नहीं है, लेकिन फिर भी स्त्री अपनी अस्मत् को बचाती हुई नज़र आती है कहीं उन दरिदों से, जो स्त्री को मात्र भोग कर, उसकी लज्जा को तार-तार कर, अपना मान समझकर बैठे हैं लेकिन लज्जा ही मात्र स्त्री का गहना है क्या ? 
यदि कोई स्त्री इन व्यवस्थाओं, पंरपरा और अडि़यल समाजिक रूढि़यों के विरूद्व संघर्ष करती है तो हम उसे संघर्ष करने की अनुमति देने में भी संकोच करते है पंरतु ये संकुच ही स्त्री का मर्दन मात्र नहीं है ? अपितु ंये मात्र उसकी मानसिकता को परखने मात्र नज़र आता है, लेकिन प्रश्न समाजिक सरोकार का है या मात्र स्त्री मर्दन समाज का है, जो मात्र अविछिन्न अंगों को तिल का ताड़ बनाने में ही अपनी कुंठीत सोच का प्रर्दशन करता नज़र आता है पंरतु स्त्री समाज को आधुनिक समाज से वर्तमान में कद़म ताल करता नहीं देखना चाहता और निरंतर निम्न अंतराल पर उसकी योग्यता का पारदर्शी नहीं होने देना चाह रहा ।
पंरतु स्त्रियों को अपने कर्तव्य के साथ-साथ अपने अधिकारों का भी ज्ञान होना आवश्यक है पंरतु समाज ये अधिकार कहीं न कहीं उससे छीनने की युक्ति करता सा नज़र आता है और उसके विपरीत गृहणी कर्तव्यों मंे लिप्त रहने की अपनी कामयाब कोशिश निरंतर करती रहना चाहती है जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में कई प्रकार के अभिनय को कदम-कदम पर सार्थकता देती हुई नज़र आती है और निरंतर समाज की संकुचित मानसिकता को गल़त करती हुई अपने सफ़र को नये आयाम देती हुई समाज से कदम ताल करने की निरंतर कोशिश करती हुई नज़र आ जाती है ।


                                                                                                  प्रस्तुति- सोहन सिंह