Friday, 18 September 2015

आज भी कई राज्‍यों में लोग RTI के महत्‍व को नहीं जानते

देश के कई राज्‍यों में घोटालों की जांच होती है कि  नहीं, उसका ब्यौरा 10 वर्ष पहले किसी के पास नहीं होता था लेकिन जब से आरटीआई एक्ट 2005 संपूर्ण देश में लागू हुआ है तब से कई बड़े -बड़े घोटालों का परदाफाश हुआ है जिनमें कई घोटाले बाजों को सज्जा व जुर्माना हुआ लेकिन कुछ ऐसे प्रदेश भी हैं जहां लोगों के बीच आरटीआई की कोई पहचान नहीं है। वहां लोग सरकारी व्यवस्था के अधीन होकर, जैसा वो कहते हैं वैसा ही वो मान लेते है न उन्होने किसी सरकारी कार्य भार की तयशुदा स्किमों से लेना-देना होता है न ही किसी सरकारी
कार्य भार की उपयुक्त जानकारी से ।
जिसमें होता  ये है सरकारी बाबू अपने काम से जी चुराते है जो काम 2 दिन का होता है उसमें 10 दिन व्यस्तता के दिखाते है और नए प्रौजेट की भी खबर को आम जनमानस तक नहीं पंहुचाते जिससे आम जनमानस को पता ही नहीं होता कि हमारे क्षे़त्र में हो रहे कार्य केे लिए सरकार ने कितनी रकम मुहैया कराई है, कितनी रकम का खर्च हमारे क्षेत्र में है और कितनी रकम बची हैं जो अब भी हमारे सरकारी खजाने में संगठित है उसका उपयोग संबंधित कार्यालय कहां करेगा, कैसे करेगा, और कब करेगा , करेगा भी तो वह संबंधित कार्यालय उस काम को कब तक पूर्ण करेगा जिसमें रकम का भार है ।
कुछ ऐसे ही प्रष्नों का उत्तर आरटीआई एक्ट 2005 से सर्वसमाज में सर्वजनिक होते हैं जिनको जानने का अघिकार भारत के हर प्रदेश, शहर, क्षेत्र और वहां रहने व बसने वाले हर नागरिक को है जो भारत में रहता है लेकिन कुछ राज्य आज भी ऐसे हैं जहां लोगों को आरटीआई का मतलब पता नहीं है वहां सरकारी तंत्र की भरपूर मनमानी के चलते पिछडे हुए हैं जो भारत जैसे विकासषील देष की सूरत को बिगाडते हैं जिनको जानना लोकतंत्र में अहम है आरटीआई लोकतंत्र का ऐसा हत्यार है जो कभी भी खाली नहीं जाता । इसे जन-जन तक पंहुचाने की जरूरत है जो कई नाट्य संस्थान नुकड नाटकों से देष के कौने-कौने में प्रचार कर रहे हैं

Thursday, 17 September 2015

भारत के विभिन्‍न खडों में विभिन्‍न-विभिन्‍न प्रकार की जलवायु

भारत के विभिन्‍न खडों में विभिन्‍न-विभिन्‍न प्रकार की जलवायु पायी जाती है जो अगल-अलग प्रकार की फसल के लिए अच्‍छी होती है  आईये आज हम उन भारत के उन खडों की जलवायु का परिचय आपको बताते है जो शायद ही अापको पता हो --

हिमालय खण्ड
इस खण्ड में जम्मू-कश्मीरहिमाचल प्रदेशकुमायूंहिमालय एवं पर्वतपदीय खण्डपश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग ज़िलाअसमहिमाचल प्रदेश एवं अरूणाचल प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा 125 से 250 सेण्टीमीटर होती है। कृषि एवं बसाव की द्रष्टि से अधिकांश पर्वतीय क्षेत्र नगण्य महत्व के हैं। प्रदेश के 7 प्रतिशत भाग पर कृषि की जाती है। गेहूँमक्का, वकहीटचावलआलू आदि मुख्य फ़सले है। रसदार फलविशेष रूप से पैदा किये जाते हैं।
पूर्वी एवं आर्द्र तटीय खण्ड
उत्तर-पूर्वी एवं मध्य प्राय:द्वीपीय पठारमणिपुरमिजोरमखासी, गारो, जयन्तियामिकिर पहाडि़याँ, उत्तरी कछारनागालैण्ड से लेकर मध्यवर्ती मध्य प्रदेश तक इस खण्ड की इकाइयाँ हैं। इसमे गंगा का डेल्टा, असम का मैदानी भाग एवं सम्पूर्ण तटीय भाग सम्मिलित है। यहाँ वर्षा 100 से 125 सेण्टीमीटर होती है। फ़सलों के लिए सामान्यतः सिंचाई की आवश्यकता नहीं रहती। चावल इस खण्ड की मुख्य फ़सल है। चाय, जूट, गन्ना, गेहूँ, तिलहन, चना, गरम मसाले, नारियल, ताड़, रबड़केला, कटहल आदि अन्य फ़सलें महत्त्वपूर्ण हैं।
अर्द्ध-आर्द्र प्रदेश
इस खण्ड में ऊपरी और मध्य गंगा के मैदान, (गंगा-यमुना के दोआबतराई, दक्षिणी गंगा का मैदानउत्तर प्रदेश के पूर्वी ज़िले तथा चम्पारन ज़िला) पश्चिमी बिहार, प्राय:द्वीपीय भारत में बुंदेलखंड से लगाकर, पूर्वी तटीय प्रदेशमालवा, दक्षिण-पूर्वी महाराष्ट्र, उत्तरी तथा दक्षिणी तेलंगानाकर्नाटकतमिलनाडु, वर्धा नदी का बेसिन, ऊपरी तापी नदी की घाटी, मालनाद एवं मैदानी क्षेत्रआन्ध्र प्रदेश का अधिकांश तट,कृष्णा-गोदावरी का डेल्टा, तमिलनाडु तट आदि इकाइयाँ इसमें सम्मिलित की गयी हैं। यहाँ वर्षा 75 से 100 सेण्टीमीटर होती है। सिंचाई की सुविधा मिल जाने पर कृषि क्षेत्र का तेजी से विस्तार होने लगता है। तटीय भागों एवं गंगा के मैदान में 70 प्रतिशत भूमि पर कृषि की जाती है।गन्नाचावलगेहूँजूटमक्कामूंगफलीकपासतिलहन एवं तम्बाकू यहाँ की मुख्य फ़सलें है।
शुष्क खण्ड
इस खण्ड के अन्तर्गत पंजाब और हरियाणा का मैदान ,पश्चिमी उत्तर प्रदेशराजस्थान का मरुस्थल, गुजरात का सौराष्ट्र एवं कच्छ प्रायद्वीप, पश्चिमी घाट का पूर्वी वृष्टिछाया का संकरा प्रदेश (नर्मदा-तापी का दोआब, ऊपरी गोदावरीतुंगभद्रा, भीमा एवं कृष्णा नदियों के बेसीन और रॉयल-सीमा के पठार) सम्मिलित है। यहाँ पर वर्षा 75 सेण्टीमीटर से कम होती है। प्रायः सर्वत्र ही जल का अभाव रहता है। केवल सिंचित भागों मे ही दो फ़सलें सम्भव हैं। अतः यहाँ ज्वारबाजरा, मोटे अनाजचनातिलहन एवं जल मिलने पर गेहूँ, कपास, मूंगफली, मक्का, मटर, मसाले, दालें आदि मुख्यतः पैदा किए जाते हैं।

जलवायु की दृष्टि से भारत के प्रदेश ----

शीतोष्ण हिमालय प्रदेश

इस प्रदेश को दो उप-विभागों में विभाजित किया गया है- (क) पूर्वी हिमालय प्रदेश, जिसके अन्तर्गत अरुणाचल प्रदेश का पहाड़ी भाग, ऊपरीअसम, सिक्किम और भूटान सम्मिलित हैं। यहाँ 250 सेण्टीमीटर से अधिक वर्षा होने से सघन वन पाये जाते हैं। यहाँ मुख्यतः चाय  चावलपैदा किये जाते हैं। (ब) पश्चिमी हिमाचल प्रदेश, इसके अन्तर्गत कुमायूं, गढ़वाल, शिमला की पहाडि़याँ, जम्मू-कश्मीर एवं हिमालय प्रदेश शामिल है। यहाँ की जलवयु प्रायः अर्धशुष्क है। उत्तरी भागों में सर्दियों में वर्षा अथवा हिमपात होता है। यहाँ पर सेब, नाशपाती, चेरी, शफ्तालू, बादाम, अंगूर आदि फल विशेष रूप से पैदा किये जाते हैं। आलू, मक्का और चावल अन्य फ़सलें हैं। भेंड़, बकरी पालन यहाँ का मुख्य अथवा सहायक व्यवसाय है। इससे ऊन तथा मांस प्राप्त होता है। शहद प्राप्ति हेतु मधुमक्खी पालन भी किया जाता है। अब यहाँ विकसित एवं सिंचित कृषि की जाती है।

उत्तरी शुष्क अथवा गेहूँ प्रदेश

इस प्रदेश में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरी गुजरात, उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश सम्मिलित हैं। यहाँ वर्षा 75 से.मी. से कम होती है। मरुस्थलीय भागों में वर्षा 20 से.मी. से भी कम होती है। मिट्टी मे बालू एवं कांप विशेष रूप से पायी जाती हैं। सभी स्थानों पर सिंचाई की सहायता से गेहूँ  चावल पैदा किया जाता है। यह भारत का प्रमुख गेहूँ प्रदेश है। कपास, जौ, चना, मक्का, ज्वार-बाजरा अन्य सहायक फ़सलें हैं। घोड़े, ऊँट, भेड़-बकरियां एवं गाय-बैल यहाँ के प्रमुख पशु हैं। यहाँ उत्तम नस्ल की गाय, बैल, मुर्रा नस्ल की भैंसें, घोड़े एवं भेड़ें पाली जाती हैं। भूसा हरी चरी तथा उन्नत पशु आहार दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है।

पूर्वी तर अथवा चावल प्रदेश

इसके अन्तर्गत असम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तराखण्ड, पूर्वी आन्ध्र प्रदेश, पूर्वी तमिलनाडु पूर्वी मध्य प्रदेश मुख्यतः आते हैं। यहाँ पर वर्षा 150 से.मी. अथवा इससे अधिक होती है। कांप मिट्टी अधिक पायी जाती है। यहाँ की मुख्य फ़सल धान है। अन्य फ़सलों में गन्ना, जूट एवं चाय स्थानीय रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है। चारे के अन्तर्गत बहुत ही कम क्षे़त्र है। अत: यहाँ के पशु जैसे- भैंसे आदि निकृष्ट श्रेणी के होते हैं।

पश्चिमी तर अथवा मालावार प्रदेश

मुम्बई से कन्याकुमारी तक यह मेखला पायी जाती है। केरल, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के तटीय भागों में वर्षा 250 से.मी. अथवा इससे अधिक होती है। यहाँ अधिकांशतः लैटेराइट मिट्टी पायी जाती है। यहाँ पर बागानी फ़सलें अधिक पैदा की जाती हैं, जिनमें नारियल, काजू, कहवा,चाय, अन्नानास, टेपियोक, सुपारी, गरम मसाले तथा रबड़ आदि मुख्य हैं। चावल यहाँ का मुख्य खाद्यान्न है।

मोटे अनाज वाला प्रदेश

इस प्रदेश के अन्तर्गत दक्षिणी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पूर्वी महाराष्ट्र तथा अधिकांश कर्नाटक सम्मिलित है। यहाँ वर्षा 50 से.मी. से 75 से.मी. ही होती है, क्योकि यह प्रदेश अधिकांशतः वृष्टि छाया क्षेत्रों में आते हैं। यहाँ लावा की काली मिट्टी, लैटेराइट, कहीं-कहीं कांप मिट्टी पायी जाती है। यहाँ मुख्यत: कपास, मूंगफली, चावल, गन्ना, ज्वार, बाजरा, रागी, रेंडी दालें आदि विशेष रूप से पैदा की जाती हैं। इस प्रदेश में भेड़ें अधिक पायी जाती हैं। इनसे मिलने वाली ऊन प्रायः घटिया किस्म की होती है। अब शहतूत की सहायता से रेशम की फार्मिंग का भी विकास हो रहा है।
इस वर्गीकरण को भौगोलिक पर्यावरण, स्थानीय संसाधन स्वरूप, जनसमस्या प्रारूप एवं कृषि रचित गवेषणा की दृष्टि से विशेष मान्यता नहीं मिल सकी। क्योंकि मात्र वर्षा तथा तापमान और उसके भूमि से रासायनिक सम्बन्ध को ही मोटे तौर पर ध्यान में रखा गया है। जबकिभारत जैसे विशाल देश एवं बृहत सांस्कृतिक समस्या वाले अतिप्राचीन कृषि प्रधान देश के लिए ऐसा उचित नहीं है। अत: ऐसा वर्गीकरण अधूरा एवं अनपेक्षित भी है।
जलवायु और क्षेत्र की दृष्टि से फसलों का विभाजन 


चावल प्रधान क्षेत्र
इस क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र की घाटी, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेशछत्तीसगढ़उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश तथा समुद्र तटीय भाग आदि सम्मिलित हैं, परन्तु मिट्टी तथा वर्षा की मात्रा मे विभिन्नता के कारण इसमें अनेक फ़सलों का संयोग दिखाई पड़ता है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-
धान-जूट क्षेत्र - यह क्षेत्र पश्चिम बंगाल से उड़ीसा तक प्रसारित है, जहाँ का औसततापमान 24° तथा औसत वार्षिक वर्षा 120 से.मी. से अधिक है। इस क्षेत्र में कृषिकृत भूमि के 80 प्रतिशत में चावल की कृषि की जाती है। चावल की प्रायः दो फ़सलें उगाईं जाती हैं तथा उसकी कृषि जूट के साथ अदल-बदल कर ली जाती है। मुख्य डेल्टाई प्रदेशों में जूट की प्रधानता है। 
चावल-जूट-चाय क्षेत्र - ब्रह्मपुत्र की घाटी की भूमि एवं जलवायु तथा पश्चिम बंगाल की भूमि और जलवायु में प्रायः साम्य मिलता है, अतः चावल एवं जूट का संयोग मिलना स्वाभाविक है, लेकिन निकटवर्ती ढालों पर चाय के बागान मिलते हैं। अतः चावल-जूट-चाय मुख्य शम्य संयोग है। त्रिपुरा के पूर्वी पर्वतीय ढालों पर भी इसी प्रकार का संयोग मिलता है।
चावल-मक्का-गेहूँ-गन्ना क्षेत्र -मध्य गंगा के मैदान उत्तरी बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में पश्चिम बंगाल की अपेक्षा कम वर्षा (औसत वार्षिक वर्षा 100 से.मी.) होती है। फलतः चावल मुख्य खाद्यान्न तो है, रबी की खेती भी अच्छी होती है। रबी की फ़सलों में जौ, खरीफ की फ़सलों में मक्का और गन्ना अधिक उगाया जाता है। इधर कुछ वर्षों से जौ की कृषि कम होने लगी है तथा किसान अधिक उपज प्राप्त करने के लिए नए गेहूँ की खेती अधिक करने लगे हैं।
'चावल-गेहूँ-चना क्षेत्र - उत्तरी बिहार मैदान के दक्षिण के क्षेत्रों में भूमि ऊंची तथा पठारी है, जिसकी वजह से गन्ना तथा मक्का की कृषि कम होती है। खरीफ की फ़सलों में चावल तथा रबी की फ़सलों में चना अधिक उगाया जाता है।
चावल-तिलहन क्षेत्र - झारखण्ड, पश्चिमी उड़ीसा तथा पूर्वी मध्य प्रदेश विशेषकर छत्तीसगढ़ के पठार में वर्षा का औसत 120 से.मी. है। भूमि पठारी तथा अपेक्षाकृत कम उपजाऊ है। सिंचाई के साधनों की कमी है। अतः खरीफ मे चावल की कृषि मुख्य होती है तथा रबी की फ़सलों में तिलहन अधिक बोया जाता है। जिन क्षेत्रों में सिंचन सुविधाएँ सुलभ नहीं है तथा भूमि का ढाल अधिक है, ज्वार, बाजरा तथा अन्य मोटे अनाज उगाये जाते हैं। झारखण्ड के पठारी भागों में चावल, तिलहन, मक्का तथा मोटे अनाजों का संयोग प्रायः देखने को मिलता है। पर चावल, तिलहन की खेती देखने का संयोग इस सम्पूर्ण प्रदेश में पाया जाता है।
चावल-तम्बाकू क्षेत्र - गोदावरी एवं कृष्णा के डेल्टा तथा आस-पास के क्षेत्रों में चावल मुख्य फ़सल है, पर तम्बाकू के उत्पादन में भी इस क्षेत्र की विशेषता है। इसमें गुन्टूर, पश्चिमी गोदावरी, पूर्वी गोदावरी जनपद तथा आस-पास के क्षेत्र शामिल हैं।
चावल-मूंगफली क्षेत्र - इन फ़सलों का संयोग तमिलनाडु तट पर अर्काटतिरुचिरापल्ली, पुडुचेरी में वर्षा की अधिकता तथा भूमि की उपयुक्तता के कारण मिलता है।
चावल-कपास क्षेत्र - पूर्वी समुद्र तट के धुर दक्षिणी भाग में चावल के साथ कपास का संयोग भूमि की विशेषता के कारण देखने को मिलता है।
चावल-मसाला क्षेत्र - दक्षिण-पश्चिमी समुद्र तट, जिसके अंतर्गत केरल का लगभग सम्पूर्ण समुद्र तट सम्मिलित हैनारियल के उत्पादन में अपना विशेष स्थान रखता है। चावल मुख्य खाद्यान्न है तथा मसाले भी अधिक उत्पन्न होते होते हैं।
चावल-ज्वार-बाजरा-तिलहन क्षेत्र - कर्नाटक के पठारी भागों में जलवृष्टि अधिक होने के कारण चावल की कृषि की प्रधानता है। ज्वार,बाजरा का भी उत्पादन होता है। तिलहन इस क्षेत्र की विशेषता है।
चावल-रागी क्षेत्र - पश्चिमी समुद्र तटीय भागों में उत्तर प्रदेश में दादरा से प्रारम्भ होकर दक्षिण में केरल की सीमा तक चावल की एक संकरी पेटी मिलती है, जहाँ चावल की मुख्य फ़सल है। अन्य फ़सलों में रागी महत्त्वपूर्ण है।
चावल-कपास-तम्बाकू क्षेत्र - गुजरात में खम्भात की खाड़ी के क्षेत्र में वर्षा की प्रचुरता के कारण खरीफ की फ़सलों में चावल मुख्यतः उगाया जाता है। काली मिट्टी के क्षेत्र में कपास तथा तम्बाकू विशेष रूप से उत्पादित की जाती है। अतः इस क्षेत्र में इन तीनों फ़सलों का मुख्य संयोग दिखाई पड़ता है।
गेहूँ प्रधान क्षेत्र
इस क्षेत्र के अन्तर्गत ऊपरी गंगा तथा सतलुज के मैदान, दक्षिण-पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी राजस्थान के क्षेत्र सम्मिलित हैं। अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा इसका विस्तार कम है। भारत में गेहूँ का उत्पादन सिंचाई द्वारा किया जाता है। पंजाब तथा उत्तर प्रदेश में नहरों तथा नलकूपों द्वारा सिंचित क्षेत्र में गेहूँ की कृषि अधिक होती है। पश्चिमी मध्य प्रदेश में काली मिट्टी के मिश्रण के कारण नमीं बनी रहती है, जिससे सिंचाई बिना ही काम चल जाता है। पर चम्बल आदि नदी घाटी परियोजनाओं द्वारा अब सिंचाई के साधनों में वृद्धि हो गई है। लेकिन सम्पूर्ण गेहूँ प्रधान क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियाँ समान नहीं हैं। फलतः यहाँ निम्नांकित शस्य-संयोजन क्षेत्र मिलते हैं, मिलते है
गेहूँ-चावल-गन्ना क्षेत्र - इस क्षेत्र में ऊपरी गंगा के मैदान का दाब क्षेत्ररूहेलखण्ड तथाअवध के मैदान सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र का औसत तापमान 26° तथा वार्षिक वर्षा 100 से.मी. से कम है, लेकिन नहरों और नलकूपों द्वारा सिंचाई का अच्छा प्रबन्ध हैं। अतः गेहूँ मुख्य खाद्यान्नों में है। सिंचाई और उर्वरक के बल पर साधारण रूप में खरीफ में चावल तथा उन्हीं खेती में रबी में गेहूँ उत्पन्न किया जाता है। गन्ना मुख्य मुद्रादायिनी फ़सल है, जो इस क्षेत्र में सर्वत्र उगायी जाती है। अवध के मैदान में चना भी काफ़ी उत्पन्न होता है।
गेहू-चना-मक्का-धान-कपास क्षेत्र - पंजाब के मैदानी भाग में सिंचाई की सुविधा के कारण यह देश का एक प्रधान गेहूँ उत्पादक क्षेत्र हो गया है। चावल, मक्का तथा गन्ना की भी उत्तम खेती होती है। यह भारत का एक प्रमुख कपास उत्पादक क्षेत्र भी है।
गेहूँ-ज्वार-बाजरा-मक्का-चना क्षेत्र - इस क्षेत्र में यमुना के उत्तर प्रदेश का पठारी भाग तथा मध्य प्रदेश का उत्तरी पठारी भाग सम्मिलित है, जहाँ सिंचाई की सुविधा बहुत कम है। कुछ विशेष स्थलों पर नदियों की घाटियों में ही सिंचाई का प्रबन्ध हो सका है। अतः वर्षा ऋतु में ही कृषि विशेष रूप से की जाती है, जिसमें ज्वार, बाजरा, मक्का आदि बोई जाती हैं। रबी की फ़सलों में सिंचाई की सुविधा के मुख्य क्षेत्रों में गेहूँ की कृषि की जाती है। कुछ क्षेत्रों में चना उत्पादित किया जाता है, जिसके लिये अपेक्षाकृत कम सिंचाई की आवश्यकता होती है।
गेहूँ-चना-तिलहन-ज्वार-बाजरा क्षेत्र - इस क्षेत्र में मध्य प्रदेश का पश्चिमी भाग (चम्बल तथा सोन के बीच का क्षेत्र) पड़ता है, जहाँ की भूमि ऊंची-नीची एवं पहाड़ी है। सिंचन सुविधा कुछ विशेष स्थलों पर ही सीमित है। नदियों की घाटी तथा मैदानी भाग में गेहूँ की अच्छी फ़सल होती है। कुछ स्थलों पर ज्वार-बाजरा बोया जाता है। तिलहन तथा चना की भी कृषि की जाती है।
ज्वार-बाजरा क्षेत्र
यह क्षेत्र उत्तर में पंजाब की दक्षिणी सीमा से लेकर तमिलनाडु तक विस्तृत है। इसमें राजस्थानगुजरातमहाराष्ट्रकर्नाटक, तमिलनाडु राज्य तथा उनसे संलग्न प्रदेश सम्मिलित हैं, भूमि तथा वर्षा की विषमता के कारण यहाँ निम्नांकित शम्य-संयोग मिलता है-
ज्वार-बाजरा-गेहूँ-तिलहन-चना क्षेत्र - यह क्षेत्र देश का सबसे अधिक शुष्क प्रदेश है। यहाँ 40 सेमी से कम वर्षा प्राप्त होती है तथा बलुई मिट्टी पाई जाती है। फलतः ज्वार, बाजरा मुख्य फ़सलें हैं। सिंचित क्षेत्र में गेहूँ उत्पन्न किया जाता है। सरसों (तिलहन) तथा चना की भी कृषि की जाती है।
ज्वार-बाजरा-मूंगफली-कपास क्षेत्र - यह क्षेत्र गुजरात के पश्चिमी भाग (काठियावाड़) में प्रसरित है, जहाँ वार्षिक वर्षा लगभग 100 से.मी. प्राप्त होती है। भूमि कुछ बलुई है तथा लावा के भग्नावशेष भी मिलते हैं, अतः यहाँ का भौगोलिक परिवेश पूर्वी महाराष्ट्र से मिलता-जुलता है। ज्वार, बाजरा, मूंगफली तथा कपास यहाँ की मुख्य फ़सलें हैं। मूंगफली की कृषि के लिए यह क्षेत्र विशेष महत्व रखता है।
बाजरा-गेहूँ-कपास-मूगफली क्षेत्र - इन फ़सलों का संयोग काली मिट्टी के प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र, उत्तरी कर्नाटक के पठारी भाग में मिलता है। बाजरा एवं गेहूँ मुख्य खाद्यान्न हैं। कपास एवं मूंगफली मुद्रादायिनी फ़सलें हैं। तम्बाकू भी इस क्षेत्र में अधिक उत्पादित होती है।
ज्वार-बाजरा-मूंगफली-कपास क्षेत्र - इस क्षेत्र में महाराष्ट्र तथा कर्नाटक के पूर्वी भाग तथाआन्ध्र प्रदेश के पश्चिमी भाग सम्मिलित हैं। अधिकांश भाग में वर्षा की न्यूनता है, जिससे ज्वार मुख्य फ़सल है। बाजरा का द्वितीय स्थान आता है। कपास और मूंगफली मुद्रादायिनी फ़सलें हैं। भूमि अपेक्षाकृत कम उपजाऊ होने के कारण कपास की फ़सल उतनी अच्छी नहीं होती, जितनी पश्चिमी पठारी भाग में, परन्तु मूंगफली के लिये उपयुक्त वातावरण रहता है।
ज्वार-चावल-रागी-मूंगफली क्षेत्र - तमिलनाडु के दक्षिणी पठारी भागों पर भूमि कम उपजाऊ होने तथा वर्षा की न्यूनता के कारण ज्वार और रागी मुख्य खाद्यान्न हैं।
कहवा-चाय क्षेत्र - कर्नाटक के पश्चिमी भाग में वर्षा की अधिकता के कारण कहवा तथा चाय के बागान अधिक मिलते हैं।
चाय-कहवा-रबर-मसाले के क्षेत्र - केरल राज्य के पठारी भागों पर चाय एवं कहवा के अतिरिक्त यहाँ पर रबर एवं मसालों का भी अच्छा संयोग मिलता है।
चाय क्षेत्र - असम के उत्तर पूर्वी भाग में चाय के अधिकांश बागान मिलते हैं।