Wednesday, 1 August 2018

मेरी जीवनी....

मेरा नाम सोहन सिंह है मेरी दिनचर्या सुबह 5.30 से शुरू हो जाती है जिसमें में सुबह के वक्त टहलने जाता हूं जो करीब 1 घंटे तक चलता है और उसके बाद थोड़ी बहुत वरजिस भी करता हूं जिससे की में आने वाली दिनचर्याें में स्वस्थ्य रहूं और रोजना की तरह ही अपने काम को पूरी ईमानदारी और मेहनत से करता रहूं।मैं मूल निवासी भारत में स्थिति राज्य उतर प्रदेश का हूं। मेरा जन्म जिला अलीगढ के छोटे से गांव बढ़ारी खुर्द का है। मेरे गांव में करीब मेरे 6 साल बीते और मेरे पिताजी मेरी अच्छी शिक्षा के लिए मुझे दिल्ली ले आये जिसमें मेरी प्राथमिक शिक्षा एक प्राइवेट् स्कूल जिसका नाम सोनिया पब्लिक स्कूल था में कराई लेकिन किसी परिस्थिति वश वह स्कूल मुझे छोड़ना पड़ा जिसके बाद मैंने पूर्वी विनोद नगर स्थित नगर निगम के विद्यालय में दाखिला लिया जहां पर मैंने अपनी 5 वीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी की और उस समय दिल्ली में 5 वीं कक्षा में बोर्ड हुआ करता था, जिसको पास करके ही दिल्ली सरकार के राजकीय श्रेणी के विद्यालयों में प्रवेश मिलता था। 5वीं कक्षा उतीर्ण करने के बाद, मेरा राजकीय बाल विद्यालय, पूर्वीय विनोद नगर, दिल्ली में दाखिला हुआ। यह स्कूल पूर्वीय विनोद नगर में है, यह आज भी टैंट वाले स्कूल के नाम से जाना जाता है। यहां पर मैंने मात्र 8वीं कक्षा तक पढ़ाई की। क्योंकि हम अपने शुरूआती दिनों में दिल्ली जैसे महानगर में किराये पर रहा करते थे। सन् 1998 में मेरे पिताजी ने बुराड़ी जोकि उतरी दिल्ली में स्थित है वहां पर प्लाॅट लिया और आनन्-फानन् में वह प्लाॅट बनवाया और हम वहां पर स्थानांतरण हुए। जिसके बाद मैंने अपनी पढ़ाई का शेष बचा भाग जोकि 9वीं कक्षा थी उसमें दाखिला लिया। बुराड़ी के सर्वोदय बाल विद्यालय से ही 10वीं और 12वीं कक्षा, दिल्ली के सी.बी.ए.सी बोर्ड से उतीर्ण की। 12वीं कक्षा के बाद आगे की शिक्षा के लिए मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस काॅलेज में दाखिला लिया और यहां से मैंने हिन्दी स्नातक में डिग्री प्राप्त की। यह वो दिन थे जब मेरी लेखिनी में सुधार हुआ और मुझे कविताएं, लेख व्यंगत्मक टिप्पणी लिखने को शौक जागा। मैंने रामजस काॅलेज की पत्रिका में कुछ कविताएं लिखी जिसकी सरहाना मुझे मिली। यही वह समय था जहां पर में पत्राकारिता के प्रति समर्पित हुआ और मैंने डाॅ. भीमराव आम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा से पत्रकारिता में स्नाकोतर की और करीब 6 हफ्तों की विश्वविद्यालय के कम्युनिटी रेडियो में इंटरनशिप की और आर.जे की ट्रनिंग भी ली, इसी दौरान मैंने आगरा के स्वराज टाईम्स, अखबार और ए. टीवी न्यूज चैन में इंटरनशिप भी की। जिसके बाद बुराड़ी में स्थित राज पाॅकेट डिपो में मैंने लगभग 1 वर्ष हिन्दी प्रोफरीडर का काम काम किया। इसके बाद मैंने फाॅरवर्ड प्रेस पत्रिका का दामन थाम जिसमें मैंने एक फ्रेशर्स के तौर पर काम आरम्भ किया जहां मैंने कनिष्ठ सह-संपादक और पत्रकार के तौर पर काम सीखा। यहां पर मैंने 2 वर्ष काम किया जिसके बाद मैंने हाॅरिजोन प्रिंटर एण्ड पब्लिकेशन हाऊस में फ्रिलांस काम किया। यह मेरा अतिरिक्त वेतन का स्रोत था जिसके बाद में कुल्लू की हसिन वादियों में अपना हिमाचल सप्ताहिक पत्र से जुड़ा जहां पर मैंने करीब एक वर्ष तक हसीन वादियों में रहते हुए काम किया।

Sunday, 8 July 2018

तोमर कॉलोनी की आरसी और नालियों की हालत है खराब

बुराड़ी स्थित तोमर कॉलोनी की गलियों और नालियों का काम लगभग खत्म हो गया है जोकि पूरे 3 वर्ष की अवधि में खत्म हुआ है, जिसका श्रेय किसी कॉलोनी के निवासियों को जाता है जिनके अथक प्रयास से तोमर कॉलोनी का काम तय समय से अत्यधिक 2 वर्ष के अंतराल में हुआ जोकि कॉलोनी वालों की लिए एक उपलब्धि से कम नही है,
यह उपलब्धि अब आम आदमी पर भारी पड़ रही है क्योंकि यह उपलब्धि 3 वर्ष की है तो यह तो तय है कि कॉलोनी के काम कितना टिकाऊ हुआ होगा जिसका प्रमाण यहां की टिकाऊ नालियां , टिकाऊ आर. सी वाली सड़क कह रही है जो  बनने के 4 घण्टे बाद ही फट गई थी जिसकी शिकायत यहां के जे ई तक को दी गई लेकिन कोई कार्यवाही नही हुई , कॉलोनी के लोगों को तो यही तस्सली रही कि कम से कम कॉलोनी का काम तो खत्म हुआ, लेकिन इस फ़टी सड़क को नाहि एमले ने देखा है नही अधिकारियों ने , मानसून में अब तो आलम यह है कि यह दरार लगातार गहरी हो रही है ।
दूसरी ओर इनके द्वारा बनाई गई नालियां की हालत भी खराब है हर जगह से टिकाऊ मसाला झड़ रहा है और पानी न निकले इसलिए लोगों ने जगह जगह जालियां लगा रखी है और हर जगह नालियां पट पड़ी है जिनको साफ करने का जिम्मा न mcd ले रही और नही कॉलोनी के लोग जिसके चलते मॉनसून के मौसम में पानी न निकलने का संकट पैदा हो गया है जिसके चलते पानी ठहर रहा है और मछर पैदा होने की पूरी पूरी सम्भावनाये बन रही है जिसके निवारण हेतु निगम पार्षद को सूचित किया गया और समय पर रुके पानी में दवाई भी डाली जाती है लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है जिसका निवारण नालियां साफ करके ही किया जा सकता है, लेकिन इस और नाहि तोमर कॉलोनी की जनता सक्रिय दिख रही और नाहि प्रशासन सक्रिय दिख रहा। जिसको लेकर rwa का गठन किया गया । जिसके चलते कुछ कामों में तेजी आई , लेकिन पानी की समस्या मॉनसून मैं। जस की तस है ,

Wednesday, 20 June 2018

छूट गया पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी का साथ।

कहने वालों के मुंह पचास होते हैं करने वाले बहुत कम, लेकिन जम्मू कश्मीर मे हाल में जो कुछ हुआ बहुत पहले होना चाहिए था जिससे की हमारी सेना के सैनिक  शहीद न होते। और पाक परस्त कश्मीर के अलगाववादियों को उनकी औकात पहले ही दिख जाती।
कहने वाले तो पहले भी मोदी जी को कठघर में खड़ा कर रहे थे। लेकिन भाजपा ने अपना वह अद्म्य साहस सरकार में रहते हुए भी दिखाया था, जो कांग्रेस पार्टी कभी न दिखा पाई जम्मू कश्मीर में पिछले 3 वर्षों में जो कुछ कश्मीर में घटा उसे पूरा विश्व जानता है कि उसमे किन लोगों और पूर्व में किन सरकारों की गलतियां थी जिसकी बयानगी मोदी जी की सरकार को उठानी पड़ी ।
भाजपा ने उस चुनौती को भरपूर तरीक्के से निभाया जिसको कभी कांग्रेस और अन्य दल निभा नहीं पाये थे उन्होंने मात्र उपरी ढोलों का राग छेड़ा जिसको न तो जनता ने सराहा था न ही भारतीय सेना ने उस वक्त सैनिकों के हाथ बांध दिये जाते थे जिससे सेना के प्रमुख सरकारों से खफा रहते थे , वह वक्त गवाही देता है की भारतीय सेना ने आंतकिस्तान के हाथ ही खाये थे कभी उन्हें मुंहतोड़ जवाब नहीं देने दिया गया और अमन की आड़ में 2009 दिल्ली जैसे शहर में 6-7 जगह बम ब्लास्ट करवाये। जिसकी आहट से आज भी दिल्ली कांप जाती है यह वही समय था जब भारत के शासक मनमोहन सिंह थे जिनको ’मौन सिंह‘ की उपाधि दी गई थी। न उस वक्त कश्मीर में खून रूका था और न अब रूक रहा है सरकार की तरफ से कडा़ रूख अपनाया जा रहा है जिसके चलते विपक्षी दज चिल्ला रहे हैंे कि पत्थर बाजों को क्यों मार जा रहा है यहां तक कि सेना के प्रमुख को गली का गुंडा तक बता दिया गया, जो बेहद ही शर्मनाक है ।
सरकार ने पीडीपी से गठबंधन को तोड़ दिया है जिस पर विरोधी कह रहे हैं कि पहले क्यों यह गठबंधन नहीं तोड़ा गया। कहीं तक उनकी बात भी सत्य प्रतीत होती है लेकिन इसमें भी अपवाद है वह यह कि यदि यह गठबंधन पहले ही टूट जाता तो पीडीपी सरकार की मंशा का पता नहीं चल पाता की पीडीपी सच में यह चाहती है कि कश्मीर भारत का हिस्सा बन पाये या नहीं, जिसका पता पिछले 3 सालों में केन्द्र सरकार का चल गया जिसमें केन्द्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में पीडीपी सरकार को मौका दिया की वह अपनी मुख्यमंत्री को चुने लेकिन महबूबा मूफ्ती ने पिछले 3 वर्षों में पत्थरबाजों को सहमति दी कि वह भारतीय सेना पर पत्थरबाजी कर सके जिसके चलते वहां पत्थरबाजों को पाकिस्तान फंडिंग करता जो वहां के आंतकवादियों और पत्थरबाजों को क्षय देता है। जिससे केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि भारत के सभी राजनैतिक दल परेशान थे जिसके चलते हर दिन कोई न कोई सेना पर हमला कर देता था जिसका मुंह तोड़ जवाब सेना देने में सक्षम होती यदि उनके पत्थर बाजों पर सेना सख्ती दिखाती तो विपक्ष में बैठे रहनुमा शोर मचाना शुरू कर देते की पत्थरबाज अभी बच्चे हंै उन पर पलेटगन से फायर नहीं करना चाहिए। जिसके चलते भारतीय जनता पार्टी सेना को आदेश देने मंे हिचकती नजर आती थी जिसका फायदा लेकर आतंकी आतंक की वारदात कर के भाग जाया करते थे। जिसके चलते भरतीय सरकार और पीडीपी को गठबंधन टूटा। और अब वहां राज्यपाल शासन लागू हो गया है ।

Thursday, 31 May 2018

आखिकार जीत का ठिकरा गठबंधन सरकार ने वोटिंग मशीनों पर क्यों नहीं फोड़ा।

31 मई को उपचुनावों के नतीजों में गठबंधन सरकार की जीत हुई और भाजपा की हार हुई भाजपा मात्र 2 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी जिससे कैराना सीट को भविष्य की रणनीति माना जा रहा है जिसकी जीत से यह तो पक्का हो गया कि 2019 के चुनावों में गठबंधन सरकार का जीतना लगभग तय है जो कि आने वाली भारतीय राजनीति पर अपना वर्चस्व रखेगा।
कैराना में मिली जीत से गठबंधन की सरकार को यह विश्वास हो चला है कि आने वाले 2019 चुनावों में यह फाॅर्मूला कामयाब होगा जिसका टेªलर उपचुनाव में लाॅच हो गया है लेकिन दूसरी और उपचुनावों में भाजपा गठबंधन सरकार से मात्र कुछ ही वोट के अंतर से हारी है जिससे ये भी पता चलता है कि गठबंधन होने के बाद भी भाजपा को दमखम कम नहीं हुआ है जिसको देखकर गठबंधन की सरकार को अपनी रणनीति की पुर्नविवेचना करनी होगी की कहां पर हम भाजपा से अच्छा कर सकते जिससे की 2019 के चुनावों में भाजपा को हरा सके। यदि गठबंधन सराकर द्वारा अपने रणनीति पर पुर्नविवेचना नही की गई तो 2019 एक बार फिर भाजपा दमखम से अपने पैर पसारेगी जो जिससे गठबंधन की सरकार में लिप्त राहुल, मायावती, अखिलेश, जैसे दिग्गज नेता फिर से वोटिंग मशीन पर अपनी हार का ठिकरा फोड़ते नजर आ सकते है
यदि हम गठबंधन की सरकार की विवेचना करें तो उनकी नजरों में इस बार वोटिंग मशीनों से कोई छेड़छाड़ की वारदात नहीं हुई हां मशीने कुछ खराब जरूर हुई थी जिसमें गठबंधन सरकार ने यहां तक कह दिया था कि यदि गठबंधन की हार हुई तो वोटिंग मशीन में चुनाव आयोग ने गड़बड़ की है लेकिन चुनाव का नतीजा गठबंधन के पक्ष में आया है इसलिये अब वोटिंग मशीनों में कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।
सबकुछ देखने से तो यही प्रतीत होता है कि हार होती है तो वोटिंग मशीनों को चुनाव आयोग ने पहले से ही भाजपा के पक्ष में कर रखा है अगर जीत होती है तो वोटिंग ही मात्र निष्पक्ष वोटिंग कराने का सहारा है

Wednesday, 16 May 2018

दल-बदल कानून का अर्थ


दल-बदल का साधारण अर्थ एक-दल से दूसरे दल में सम्मिलित होना हैं। संविधान के अनुसार भारत में निम्नलिखित स्थितियाँ सम्मिलित हैं -
किसी विधायक का किसी दल के टिकट पर निर्वाचित होकर उसे छोड़ देना और अन्य किसी दल में शामिल हो जाना।
मौलिक सिध्दान्तों पर विधायक का अपनी पार्टी की नीति के विरुध्द योगदान करना।
किसी दल को छोड़ने के बाद विधायक का निर्दलीय रहना।
परन्तु पार्टी से निष्कासित किए जाने पर यह नियम लागू नहीं होगा।
सारी स्थितियों पर यदि विचार करें तो दल बदल की स्थिति तब होती है जब किसी भी दल के सांसद या विधायक अपनी मर्जी से पार्टी छोड़ते हैं या पार्टी व्हिप की अवहेलना करते हैं। इस स्थिति में उनकी सदस्यता को समाप्त किया जा सकता है और उनपर दल बदल निरोधक कानून लागू होगा।
पर यदि किसी पार्टी के एक साथ दो तिहाई सांसद या विधायक (पहले ये संख्या एक तिहाई थी) पार्टी छोड़ते हैं तो उन पर ये कानून लागू नहीं होगा पर उन्हें अपना स्वतन्त्र दल बनाने की अनुमति नहीं है वो किसी दूसरे दल में शामिल हो सकते हैं।
दलबदल विरोधी कानून
संविधान के दलबदल विरोधी कानून के संशोधित अनुच्छेद 101, 102, 190 और 191 का संबंध संसद तथा राज्य विधानसभाओं में दल परिवर्तन के आधार पर सीटों से छुट्टी और अयोग्यता के कुछ प्रावधानों के बारे में है। दलबदल विरोधी कानून भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची जोड़ा गया है जिसे संविधान के 52वें संशोधन के माध्यम से वर्ष 1985 में पारित किया गया था। इस कानून में विभिन्न संवैधानिक प्रावधान थे और इसकी विभिन्न आधारों पर आलोचना भी हुयी थी।
अधिनियम की विशेषताएं
दलबदल विरोधी कानून की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है:
यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
यदि एक व्यक्ति को दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया जाता है तो विधान सभा या किसी राज्य की विधान परिषद की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा।
दसवीं अनुसूची के अलावा- संविधान की नौवीं अनुसूची के बाद, दसवीं अनुसूची को शामिल किया गया था जिसमें अनुच्छेद 102 (2) और 191 (2) को शामिल किया गया था।
संवैधानिक प्रावधान निम्नवत् हैं:
75 (1 क) यह बताता है कि प्रधानमंत्री, सहित मंत्रियों की कुल संख्या, मंत्री परिषद लोक सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
75 (1 ख) यह बताता है कि संसद या संसद के सदस्य जो किसी भी पार्टी से संबंध रखते हैं और सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित किया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है।
102 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य बनने के लिए अयोग्य होगा।
164 (1 क) यह बताता है कि मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या, उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
164 (1 ख) यह बताता है कि किसी राज्य के किसी भी विधानमंडल सदन के सदस्य चाहे वह विधानसभा सभा सदस्य हो या विधान परिषद का सदस्य, वह किसी भी पार्टी से संबंध रखता हो और वह उस सदन के सदस्य बनने के लिए अयोग्य घोषित किये जा चुकें हैं तो उन्हें उस अवधि से ही मंत्री बनने के लिए भी अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा जिस तारीख को उन्हें अयोग्य घोषित किया गया है।
191 (2) यह बताता है कि एक व्यक्ति जिसे दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित कर दिया गया है तो वह राज्य के किसी भी सदन चाहे वो विधान सभा हो या विधान परिषद, का सदस्य बनने के लिए भी अयोग्य होगा।
361 ख - लाभप्रद राजनीतिक पद पर नियुक्ति के लिए अयोग्यता।
अधिनियम का आलोचनात्मक मूल्यांकन
दलबदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक घटना के रूप में माना गया है। इसने विधायकों या सांसदों को राजनैतिक माईंड सेट के साथ नैतिक और समकालीक राजनीति करने को मजबूर कर दिया है। दलबदल विरोधी कानून ने राजनेताओं को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए गियर शिफ्ट करने के लिए हतोत्साहित किया। हालांकि, इस अधिनियम में कई कमियां भी हैं और यहां तक कि यह कई बार दलबदल को रोकने में विफल भी रहा है। इसे निम्नलिखित कथनों से और गंभीर तरीके से समझा जा सकता है:
लाभ -
पार्टी के प्रति निष्ठा के बदलाव को रोकने से सरकार को स्थिरता प्रदान करता है।
पार्टी के समर्थन के साथ और पार्टी के घोषणापत्रों के आधार पर निर्वाचित उम्मीदवारों को पार्टी की नीतियों के प्रति वफादार बनाए रखता है।
इसके अलावा पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है।
नुकसान -
दलों को बदलने से सांसदों को रोकने से यह सरकार की संसद और लोगों के प्रति जवाबदेही कम कर देता है।
पार्टी की नीतियों के खिलाफ असंतोष को रोकने से सदस्य की बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ हस्तक्षेप करता है।
इसलिए, कानून का मुख्य उद्देश्य "राजनीतिक दलबदल की बुराई' से निपटने या मुकाबला करना था। एक सदस्य तब अयोग्य घोषित हो सकता है जब वह "स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता को त्याग देता है" और जब वह पार्टी द्वारा जारी किए गये दिशा निर्देश के विपरीत वोट (या पूर्व अनुज्ञा) करता है/करती है।

Tuesday, 15 May 2018

अब तय करेंगें राज्यपाल किसकी बनेगी सरकार

कर्णाटक में कल का दिन (बहुमत की गिनती) बहुत खास था कल (15.05.2018) सियासी पारा अपने चर्म पर था जिसके रण में कई उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे थे जिसमें कांग्रेस (78) के बाद भाजपा (104) को अपना किला फतह करना था जिसके शुरूआती रूझान को देख कर किसी को कोई हैरानी नहीं हुई क्योंकि शुरूवाती रूझानों में कांग्रेस ने बाजी मारी थी जिसके चलते भाजपा पिछड़ गई थी लेकिन जैसे गिनती का दौर बढ़ा तो फिर बाजी भाजपा के हाथ रही जिसके चलते कांग्रेस (78) के हाथ पैरों पर सूजन सी दिखने लगी सभी में हड़बड़ाहट का दौर शुरू हो गया कि ये कैसा गणित बिगड़ा और बड़बोलों के बोल मंद पड़ गए। जिसमें कहीं न कहीं वहां के मतदाताओं ने चेता दिया कि कांग्रेस का अब वह पिंड छोड़ देना चाहते हैं कांग्र्रेस 2013 के मुकाबले 2018 में बेहद दयनीय स्थिति में पंहुच गई है उसे अपने से कम सीटों वाली पार्टी जेडीएस (38) के साथ गठबंधन का एलान समय रहते कर दिया जिसका सीधा असर कांग्रेस की साख पर था जिसे बचाने के लिए कांग्रेस ने अपने आप से समझौता करते हुए कम सीटों वाली जेडीएस के हाथ कर्णाटक की कमान सौपने का  फैसला कर लिया वो भी लिखित में, लेकिन असली गणित तो राज्यपाल को तय करना था। 
शाम होते होते उधर भाजपा (104) का भी गणित बिगड़ता दिखा जिसके चलते उसे अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार (112) से वंचित होना पड़ा और अब उसे भी गठबंधन की सरकार बनाने में व्यस्त होना पड़ेगा जिससे दोनों महत्वपूर्ण पार्टियां दोहराव के रास्ते पर आगे बढ़ चली हैं जिसमें कहीं न कहीं कांग्रेस अपनी सरकार बनानी चाहेगी जिससे की उसकी साख पर बट्टा न लगे , जिसकी बयानगी मात्र कर्णाटक के राज्यपाल तय कर सकते हैं 
भाजपा के द्वारा बनाई गई रणनीति में कांग्रेस के अनुसूचित जाति सीटों (28)  को सेंध लगााकर अपनी ओर करना का श्रेय उनकी चुनाव में बढ़ती सीटें हैं जिनके द्वारा वह 104 सीटें जीतने में कामयाब रही जो भाजपा की रणनीति का एक हिस्सा थी, जिसके चलते सिद्वरम्मैया को उन्हीं की सीट पर हार का समाना करना पड़ा जो पूरी कांग्रेस की कमर तोड़ गया। 

Friday, 11 May 2018

दो विकल्प होने के बाद भी तीसरा विकल्प क्या ?

तार्किकता के मापदंड पर खबरों का आकलन करें तो कोई भी राजनैतिक खबर सही मायनों में सही नही लगती क्योंकि राजनेताओं के वादों में बहुत ही खिलाफत दिखती है वादे और वाद में उनके बहुत ही निरंतरता है जिसमें नए नेता हों या गुड़ी नेता सब नजदीक आकर, एक जैसे ही प्रतीत होते हैं जिसमें समाज ही पीसता है लेकिन नेता अपनी साख हम लोगों के द्वारा ही बनता है और हमें सालों साल मूढ़ बनाता है जिसका खामियाजा हम एक दूसरे के खिलाफ ही आजमाते हैं। जो हमारी मूर्खता और अज्ञानता को ही परोसती है जिसमें हम रहना नहीं चाहते लेकिन उसमें रहते हैं जिसे हम अपनी अज्ञानता कहें या राजनेताआंे की बुद्विमता कहें लेकिन कुछ भी हो पीसता तो आम आदमी ही है जो रहते हुए भी न के बराबर है।
यदि हम तार्किकता से सुसंगत हों तो प्रश्न यहां यह आता है कि तीसरा विकल्प क्या है लेकिन तीसरा विकल्प ही हमंे मूर्ख बना जाए तो कोई चैथा विकल्प भी बचता है इस प्रश्न का उत्तर ‘न’ में ही समाने आता है जो कोई विकल्प ही नही बन सकता। इसलिए दो ही सुसंगत प्रतीत होते है बावजूद इसके की हम किस को ज्यादा पंसद करें। यदि हमें किसी को लंबा समय दे दें तो उसकी कार्यप्रणाली, कार्य क्रिया को समझने में सलयता रहती है जिसका आकलंन हमें कुछ वर्षो बाद या कुछ समय बाद ही पता चल जाता है जो उसकी कार्य क्षमता का अंक प्रमाण पत्र हो सकता है लकिन इसके बाबजूद भी हमें उसको ही क्यों पंसद करते हैं जो परीक्षा में असफल हुआ है। 
भारतीय राजनीति इसका एक सक्षम उदाहरण है जिसके अंतःमन में 1947 से कांग्रेस ही छीपी थी। जिसने कुछ मुद्दों पर तो मोर्चा मारा है लेकिन कई मोर्चाे पर वह विफल भी रही है वह मोर्चे भारत के जी का जंजाल बने हुए हैं। जिनको कामोवेश उस समय की राजनीती ने हल नहीं होने दिये जो अब नासूर हो रहे है जिसमें सबसे बड़ा उदाहरण कश्मीर है जिसके चलते वर्तमान में भारत उबल रहा है बरसों से चली आ रही लड़ाई अब तक थमी नही। वहां से हिन्दूवासियों को खदेड़ा गया तब मोर्चे नहीं खुले, लेकिन अब मोर्चे खुले हैं जब कुछ नेता पाकिस्तान का गुणगान करते हैं जिन्हें भारत से राजनीति में आन्नद आता है लेकिन हमारी सरकारो की इच्छा शक्ति यहां दिखाई नहीं देती अगर दिखाई देती भी है तो विपक्ष अघोषित विलाप छेड़ देता है जो सेना की कार्यवाही में छिंटाकशी का कार्य करती है जिसका हल शायद ही कभी आ पाए।
ये तो मात्र एक ही उदारण है ऐसे कई उदाहरण है जो भारतीय राजनीति की कलई खोलने के लिए ही जन्में हैं जिनमें एक उदाहरण दिल्ली का भी है जिसमेे ‘‘आम आदमी की पार्टी’’ कही जाने वाले राजनैतिक दल को जन्म दिया। जिसने पिछले कुछ वर्षों में सभी को भ्रमित किया है जिसकी कार्यशैली निष्पकक्ष नहीं है जो ‘‘कहती कुछ और है करती कुछ है’’ यह वही विकल्प था जिसकी मैंने दूसरी प्रस्तावना में बात की है जिसको तीसरा विकल्प समझ कर दिल्ली की जनता ने पलकों पर बिठाया। लेकिन इस विकल्प ने ही जनता को ठगा ये कहकर की ‘‘हम सबसे अच्छे हैं बाकि सब चोर’’ हैं। लेकिन सही मायनों में चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं यह कहावत यहां आम आदमी पार्टी ने पुख्ता कर दी। जिसने गत् 4 वर्षों में दिल्ली के विकास को 5 वर्ष पीछे धकेला है जो निरंतर लड़ाई-झगड़ों में व्यस्त रही है कभी राज्यपाल के साथ तो कभी प्रशासनिक अधिकारियों के साथ, दिल्ली के आम नागरिक को भुगतना पड़ा। लेकिन इसमें सारी गलती इनकी भी नहीं कह सकते यहां कांग्रेस, भाजपा का मुद्दा भी उछल कर आंखों के समीप है। जिसको न चाहते हुए भी छिपाया नहीं जा सकता। ये वही पार्टियां हैं जिन्होने इन आकूतों को सत्ता में आने का मौका दिया जो पहले से ही भूख से बिलक रहंे थे
- सोहन सिंह 

Friday, 13 April 2018

डॉ भीम राव आंबेडकर जी के संघर्ष की एक व्यख्या

आंबेडकर जी का जन्म ब्रिटिश भारत के मध्य भारत प्रांत (अब मध्य प्रदेश में) में स्थित नगर सैन्य छावनी महू में हुआ था। वे रामजी मालोजी सकपाल और भीमाबाई की 18 वीं व अंतिम संतान थे। उनका परिवार मराठी था और वो आंबडवे गांव जो आधुनिक महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है, से संबंधित था। वे हिंदू महार जाति से संबंध रखते थे, जो अछूत कहे जाते थे और उनके साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्यरत थे और उनके पिता, भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थे और यहां काम करते हुये वो सूबेदार के पद तक पहुँचे थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में औपचारिक शिक्षा की डिग्री प्राप्त की थी।
आंबेडकर को गौतम बुद्ध की शिक्षाओं ने प्रभावित किया था। अपनी जाति के कारण उन्हें इसके लिये सामाजिक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा था। स्कूली पढ़ाई में सक्षम होने के बावजूद छत्र भीमराव को अस्पृश्यता के कारण अनेका प्रकार की कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। रामजी सकपाल ने स्कूल में अपने बेटे भीमराव का उपनाम ‘सकपाल' की बजायं ‘आंबडवेकर' लिखवाया, क्योंकी कोकण प्रांत में लोग अपना उपनाम गांव के नाम से लगा देते थे, इसलिए भीमराव का मूल अंबाडवे गांव से अंबावडेकर उपनाम स्कूल में दर्ज किया। बाद में एक देवरुखे ब्राह्मण शिक्षक कृष्णा महादेव आंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे, ने उनके नाम से ‘अंबाडवेकर’ हटाकर अपना सरल ‘आंबेडकर’ उपनाम जोड़ दिया। आज आंबेडकर नाम से जाने जाते है।
रामजी आंबेडकर ने सन 1919 में पुनर्विवाह कर लिया और परिवार के साथ मुंबई (तब बंबई) चले आये। यहाँ अम्बेडकर एल्फिंस्टोन रोड पर स्थित गवर्न्मेंट हाई स्कूल के पहले अछूत छात्र बने।[
उच्च शिक्षा
गायकवाड शासक ने सन 1913 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय मे जाकर अध्ययन के लिये भीमराव आंबेडकर का चयन किया गया साथ ही इसके लिये एक 11.5 डॉलर प्रति मास की छात्रवृत्ति भी प्रदान की। न्यूयॉर्क शहर में आने के बाद, डॉ॰ भीमराव आंबेडकर को राजनीति विज्ञान विभाग के स्नातक अध्ययन कार्यक्रम में प्रवेश दे दिया गया। शयनशाला मे कुछ दिन रहने के बाद, वे भारतीय छात्रों द्वारा चलाये जा रहे एक आवास क्लब मे रहने चले गए और उन्होने अपने एक पारसी मित्र नवल भातेना के साथ एक कमरा ले लिया। 1916 में, उन्हे उनके एक शोध के लिए पीएच.डी. से सम्मानित किया गया। इस शोध को अंततः उन्होंने पुस्तक इवोल्युशन ओफ प्रोविन्शिअल फिनान्स इन ब्रिटिश इंडिया के रूप में प्रकाशित किया। हालाँकि उनकी पहला प्रकाशित काम, एक लेख जिसका शीर्षक, भारत में जाति : उनकी प्रणाली, उत्पत्ति और विकास है। अपनी डाक्टरेट की डिग्री लेकर सन 1916 में डॉ॰ आंबेडकर लंदन चले गये जहाँ उन्होने ग्रेज् इन और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में कानून का अध्ययन और अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट शोध की तैयारी के लिये अपना नाम लिखवा लिया। अगले वर्ष छात्रवृत्ति की समाप्ति के चलते मजबूरन उन्हें अपना अध्ययन अस्थायी तौर बीच मे ही छोड़ कर भारत वापस लौटना पडा़ ये प्रथम विश्व युद्ध का काल था। बड़ौदा राज्य के सेना सचिव के रूप में काम करते हुये अपने जीवन मे अचानक फिर से आये भेदभाव से डॉ॰ भीमराव आंबेडकर निराश हो गये और अपनी नौकरी छोड़ एक निजी ट्यूटर और लेखाकार के रूप में काम करने लगे। यहाँ तक कि अपनी परामर्श व्यवसाय भी आरंभ किया जो उनकी सामाजिक स्थिति के कारण विफल रहा। अपने एक अंग्रेज जानकार मुंबई के पूर्व राज्यपाल लॉर्ड सिडनेम, के कारण उन्हें मुंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स मे राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गयी। १९२० में कोल्हापुर के महाराजा, अपने पारसी मित्र के सहयोग और अपनी बचत के कारण वो एक बार फिर से इंग्लैंड वापस जाने में सक्षम हो गये। १९२३ में उन्होंने अपना शोध प्रोब्लेम्स ऑफ द रुपी (रुपये की समस्यायें) पूरा कर लिया। उन्हें लंदन विश्वविद्यालय द्वारा "डॉक्टर ऑफ साईंस" की उपाधि प्रदान की गयी। और उनकी कानून का अध्ययन पूरा होने के, साथ ही साथ उन्हें ब्रिटिश बार मे बैरिस्टर के रूप में प्रवेश मिल गया। भारत वापस लौटते हुये डॉ॰ भीमराव आंबेडकर तीन महीने जर्मनी में रुके, जहाँ उन्होने अपना अर्थशास्त्र का अध्ययन, बॉन विश्वविद्यालय में जारी रखा। उन्हें औपचारिक रूप से 8 जून 1927 को कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा पीएच.डी. प्रदान की गयी।
छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष
भारत सरकार अधिनियम 1919, तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष, भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर अम्बेडकर को गवाही देने के लिये आमंत्रित किया गया। इस सुनवाई के दौरान, अम्बेडकर ने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिये पृथक निर्वाचिका (separate electorates) और आरक्षण देने की वकालत की। 1920 में, बंबई से , उन्होंने साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। यह प्रकाशन जल्द ही पाठकों मे लोकप्रिय हो गया, तब अम्बेडकर ने इसका इस्तेमाल रूढ़िवादी हिंदू राजनेताओं व जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति भारतीय राजनैतिक समुदाय की अनिच्छा की आलोचना करने के लिये किया। उनके दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिये गये भाषण ने कोल्हापुर राज्य के स्थानीय शासक शाहू चतुर्थ को बहुत प्रभावित किया, जिनका अम्बेडकर के साथ भोजन करना रूढ़िवादी समाज मे हलचल मचा गया। अम्बेडकर ने अपनी वकालत अच्छी तरह जमा ली और बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक आर्थिक उत्थान के लिये काम करना था। सन् 1926 में, वो बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गये। सन 1927 में डॉ॰ अम्बेडकर ने छुआछूत के खिलाफ एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिये खुलवाने के साथ ही उन्होनें अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिये भी संघर्ष किया। उन्होंने महड में अस्पृश्य समुदाय को भी शहर की पानी की मुख्य टंकी से पानी लेने का अधिकार दिलाने कि लिये सत्याग्रह चलाया।
1जनवरी 1927 को अम्बेडकर ने द्वितीय आंग्ल - मराठा युद्ध, की कोरेगाँव की लडा़ई के दौरान मारे गये भारतीय सैनिकों के सम्मान में कोरेगाँव विजय स्मारक मे एक समारोह आयोजित किया। यहाँ महार समुदाय से संबंधित सैनिकों के नाम संगमरमर के एक शिलालेख पर खुदवाये। 1927 में, उन्होंने अपना दूसरी पत्रिका बहिष्कृत भारत शुरू की और उसके बाद रीक्रिश्टेन्ड जनता की। उन्हें बाँबे प्रेसीडेंसी समिति मे सभी यूरोपीय सदस्यों वाले साइमन कमीशन 1928 में काम करने के लिए नियुक्त किया गया। इस आयोग के विरोध मे भारत भर में विरोध प्रदर्शन हुये और जबकि इसकी रिपोर्ट को ज्यादातर भारतीयों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया, डॉ अम्बेडकर ने अलग से भविष्य के संवैधानिक सुधारों के लिये सिफारिशों लिखीं।
1927 तक, अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के खिलाफ सक्रिय आंदोलन शुरू करने का फैसला किया था। उन्होंने सार्वजनिक पेय जल संसाधनों को खोलने के लिए सार्वजनिक आंदोलनों और मार्च के साथ शुरू किया। उन्होंने हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने के अधिकार के लिए एक संघर्ष भी शुरू किया। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के अधिकार के लिए शहर के मुख्य जल टैंक से पानी निकालने के लिए लड़ने के लिए महाड में एक सत्याग्रह का नेतृत्व किया। 1927 के अंत में सम्मेलन में, अम्बेडकर ने जाति भेदभाव और "अस्पृश्यता" को वैचारिक रूप से न्यायसंगत बनाने के लिए क्लासिक हिंदू पाठ, मनुस्मृति (मनु के कानून) की सार्वजनिक रूप से निंदा की, और उन्होंने औपचारिक रूप से प्राचीन पाठ की प्रतियां जला दीं। 25 दिसंबर 1927 को, उन्होंने हजारों अनुयायियों का नेतृत्व मनुस्मृति की प्रतियां जलाया। इस प्रकार प्रतिवर्ष 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दीन (मनुस्मृति बर्निंग डे) के रूप में अम्बेडकरियों और दलितों द्वारा मनाया जाता है।
पूना संधि
अब तक अम्बेडकर आज तक की सबसे बडी़ अछूत राजनीतिक हस्ती बन चुके थे। उन्होंने मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों की जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति उनकी कथित उदासीनता की कटु आलोचना की। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर जी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेता मोहनदास करमचंद गांधी की आलोचना की, उन्होने उन पर अस्पृश्य समुदाय को एक करुणा की वस्तु के रूप मे प्रस्तुत करने का आरोप लगाया। डॉ॰ आंबेडकर ब्रिटिश शासन की विफलताओं से भी असंतुष्ट थे, उन्होने अस्पृश्य समुदाय के लिये एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमे कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का ही कोई दखल ना हो। 8 अगस्त, 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान डॉ॰ आंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा, जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसके सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।
हमें अपना रास्ता स्वयँ बनाना होगा और स्वयँ... राजनीतिक शक्ति शोषितो की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती, उनका उद्धार समाज मे उनका उचित स्थान पाने मे निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा.... उनको शिक्षित होना चाहिए... एक बड़ी आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर उस दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है जो सभी उँचाइयों का स्रोत है।
इस भाषण में अम्बेडकर ने कांग्रेस और मोहनदास गांधी द्वारा चलाये गये नमक सत्याग्रह की शुरूआत की आलोचना की। अम्बेडकर की आलोचनाओं और उनके राजनीतिक काम ने उसको रूढ़िवादी हिंदुओं के साथ ही कांग्रेस के कई नेताओं मे भी बहुत अलोकप्रिय बना दिया, यह वही नेता थे जो पहले छुआछूत की निंदा करते थे और इसके उन्मूलन के लिये जिन्होने देश भर में काम किया था। इसका मुख्य कारण था कि ये "उदार" राजनेता आमतौर पर अछूतों को पूर्ण समानता देने का मुद्दा पूरी तरह नहीं उठाते थे। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर की अस्पृश्य समुदाय मे बढ़ती लोकप्रियता और जन समर्थन के चलते उनको 1931 मे लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में, भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया।(डा॰ भीमराव अंबेडकर ने तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया था ) उनकी अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने के मुद्दे पर तीखी बहस हुई। धर्म और जाति के आधार पर पृथक निर्वाचिका देने के प्रबल विरोधी गांधी ने आशंका जताई, कि अछूतों को दी गयी पृथक निर्वाचिका, हिंदू समाज की भावी पीढी़ को हमेशा के लिये विभाजित कर देगी। गांधी को लगता था की, सवर्णों को अस्पृश्यता भूलाने के लिए कुछ अवधि दी जानी चाहिए, यह गांधी का तर्क गलत सिद्ध हुआ जब सवर्णों हिंदूओं द्वारा पूना संधि के कई दशकों बाद भी अस्पृश्यता का नियमित पालन होता रहा।
1932 में जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की, तब मोहनदास गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। मोहनदास गांधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के दलिताधिकार विरोधी अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय नेअम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते डॉ॰ भीमराव अंबेडकर जी ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। मोहनदास गांधी ने अपने गलत तर्क एवं गलत मत से संपूर्ण अछूतों के सभी प्रमुख अधिकारों पर पानी फेर दिया। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश/पूजा के अधिकार एवं छूआ-छूत ख़तम करने की बात स्वीकार कर ली गयी। गाँधी ने इस उम्मीद पर की बाकि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर, सभी शर्ते मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया।
आरक्षण प्रणाली में पहले दलित अपने लिए संभावित उम्मीदवारों में से चुनाव द्वारा (केवल दलित) चार संभावित उम्मीदवार चुनते। इन चार उम्मीदवारों में से फिर संयुक्त निर्वाचन चुनाव (सभी धर्म \ जाति) द्वारा एक नेता चुना जाता। इस आधार पर सिर्फ एक बार सन 1937 में चुनाव हुए। डॉ॰ आंबेडकर 20-25 साल के लिये राजनैतिक आरक्षण चाहते थे लेकिन गाँधी के अड़े रहने के कारण यह आरक्षण मात्र 5 साल के लिए ही लागू हुआ। पूना संधी के बारें गांधीवादी इतिहासकार ‘अहिंसा की विजय’ लिखते हैं, परंतु यहाँ अहिंसा तो डॉ॰ भीमराव आंबेडकर ने निभाई हैं।
पृथक निर्वाचिका में दलित दो वोट देता एक सामान्य वर्ग के उम्मीदवार को ओर दूसरा दलित (पृथक) उम्मीदवार को। ऐसी स्थिति में दलितों द्वारा चुना गया दलित उम्मीदवार दलितों की समस्या को अच्छी तरह से तो रख सकता था किन्तु गैर उम्मीदवार के लिए यह जरूरी नहीं था कि उनकी समस्याओं के समाधान का प्रयास भी करता। बाद मे अम्बेडकर ने गाँधी जी की आलोचना करते हुये उनके इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। उनके अनुसार असली महात्मा तो ज्योतीराव फुले थे।
राजनीतिक जीवन
13 अक्टूबर 1935 को, अम्बेडकर को सरकारी लॉ कॉलेज का प्रधानचार्य नियुक्त किया गया और इस पद पर उन्होने दो वर्ष तक कार्य किया। इसके चलते अंबेडकर बंबई में बस गये, उन्होने यहाँ एक बडे़ घर का निर्माण कराया, जिसमे उनके निजी पुस्तकालय मे 50000 से अधिक पुस्तकें थीं। इसी वर्ष उनकी पत्नी रमाबाई की एक लंबी बीमारी के बाद मृत्यु हो गई। रमाबाई अपनी मृत्यु से पहले तीर्थयात्रा के लिये पंढरपुर जाना चाहती थीं पर अंबेडकर ने उन्हे इसकी इजाज़त नहीं दी। अम्बेडकर ने कहा की उस हिन्दू तीर्थ मे जहाँ उनको अछूत माना जाता है, जाने का कोई औचित्य नहीं है इसके बजाय उन्होने उनके लिये एक नया पंढरपुर बनाने की बात कही। भले ही अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी लडा़ई को भारत भर से समर्थन हासिल हो रहा था पर उन्होने अपना रवैया और अपने विचारों को रूढ़िवादी हिंदुओं के प्रति और कठोर कर लिया। उनकी रूढ़िवादी हिंदुओं की आलोचना का उत्तर बडी़ संख्या मे हिंदू कार्यकर्ताओं द्वारा की गयी उनकी आलोचना से मिला। 13 अक्टूबर को नासिक के निकट येओला मे एक सम्मेलन में बोलते हुए अम्बेडकर ने धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट की। उन्होने अपने अनुयायियों से भी हिंदू धर्म छोड़ कोई और धर्म अपनाने का आह्वान किया। उन्होने अपनी इस बात को भारत भर मे कई सार्वजनिक सभाओं मे दोहराया भी।
1936 में, अम्बेडकर ने स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की, जो 1937 में केन्द्रीय विधान सभा चुनावों मे 15 सीटें जीती। उन्होंने अपनी पुस्तक जाति के विनाश भी इसी वर्ष प्रकाशित की जो उनके न्यूयॉर्क मे लिखे एक शोधपत्र पर आधारित थी। इस सफल और लोकप्रिय पुस्तक मे अम्बेडकर ने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गाँधी द्वारा रचित शब्द हरिजन पुकारने के कांग्रेस के फैसले की कडी़ निंदा की। अम्बेडकर ने रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रम मंत्री के रूप में सेवारत रहे। 1941 और 1945 के बीच में उन्होंने बड़ी संख्या में अत्यधिक विवादास्पद पुस्तकें और पर्चे प्रकाशित किये जिनमे ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ भी शामिल है, जिसमें उन्होने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की मांग की आलोचना की। वॉट काँग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स (काँग्रेस और गान्धी ने अछूतों के लिये क्या किया) के साथ, अम्बेडकर ने गांधी और कांग्रेस दोनो पर अपने हमलों को तीखा कर दिया उन्होने उन पर ढोंग करने का आरोप लगाया।
उन्होने अपनी पुस्तक ‘हू वर द शुद्राज़?’( शुद्र कौन थे?) के द्वारा हिंदू जाति व्यवस्था के पदानुक्रम में सबसे नीची जाति यानी शुद्रों के अस्तित्व मे आने की व्याख्या की। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि किस तरह से अछूत, शुद्रों से अलग हैं। अम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति फेडरेशन मे बदलते देखा, हालांकि 1946 में आयोजित भारत के संविधान सभा के लिए हुये चुनाव में इसने खराब प्रदर्शन किया। 1948 में हू वर द शुद्राज़? की उत्तरकथा द अनटचेबलस: ए थीसिस ऑन द ओरिजन ऑफ अनटचेबिलिटी (अस्पृश्य: अस्पृश्यता के मूल पर एक शोध) मे अम्बेडकर ने हिंदू धर्म को लताड़ा।
हिंदू सभ्यता .... जो मानवता को दास बनाने और उसका दमन करने की एक क्रूर युक्ति है और इसका उचित नाम बदनामी होगा। एक सभ्यता के बारे मे और क्या कहा जा सकता है जिसने लोगों के एक बहुत बड़े वर्ग को विकसित किया जिसे... एक मानव से हीन समझा गया और जिसका स्पर्श मात्र प्रदूषण फैलाने का पर्याप्त कारण है? अम्बेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। उन्होने भारत विभाजन का तो पक्ष लिया पर मुस्लिमो मे व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की घोर निंदा की। उन्होंने कहा,
बहुविवाह और रखैल रखने के दुष्परिणाम शब्दों में व्यक्त नहीं किये जा सकते जो विशेष रूप से एक मुस्लिम महिला के दुःख के स्रोत हैं। जाति व्यवस्था को ही लें, हर कोई कहता है कि इस्लाम गुलामी और जाति से मुक्त होना चाहिए, जबकि गुलामी अस्तित्व में है और इसे इस्लाम और इस्लामी देशों से समर्थन मिला है। इस्लाम में ऐसा कुछ नहीं है जो इस अभिशाप के उन्मूलन का समर्थन करता हो। अगर गुलामी खत्म भी हो जाये पर फिर भी मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था रह जायेगी।
उन्होंने लिखा कि मुस्लिम समाज मे तो हिंदू समाज से भी कही अधिक सामाजिक बुराइयां है और मुसलमान उन्हें " भाईचारे " जैसे नरम शब्दों के प्रयोग से छुपाते हैं। उन्होंने मुसलमानो द्वारा अर्ज़ल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें " निचले दर्जे का " माना जाता था के साथ ही मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की भी आलोचना की। उन्होंने कहा हालाँकि पर्दा हिंदुओं मे भी होता है पर उसे धर्मिक मान्यता केवल मुसलमानों ने दी है। उन्होंने इस्लाम मे कट्टरता की आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नातियों का अक्षरक्ष अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है और उसे को बदलना बहुत मुश्किल हो गया है। उन्होंने आगे लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं जबकि इसके विपरीत तुर्की जैसे देशों ने अपने आपको बहुत बदल लिया है।
"सांप्रदायिकता" से पीड़ित हिंदुओं और मुसलमानों दोनों समूहों ने सामाजिक न्याय की माँग की उपेक्षा की है।
हालांकि वे मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग की विभाजनकारी सांप्रदायिक रणनीति के घोर आलोचक थे पर उन्होने तर्क दिया कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए और पाकिस्तान का गठन हो जाना चाहिये क्योकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए, जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा पनपेगी। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के सांप्रदायिक विभाजन के बारे में अपने विचार के पक्ष मे ऑटोमोन साम्राज्य और चेकोस्लोवाकिया के विघटन जैसी ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया।
उन्होंने पूछा कि क्या पाकिस्तान की स्थापना के लिये पर्याप्त कारण मौजूद थे? और सुझाव दिया कि हिंदू और मुसलमानों के बीच के मतभेद एक कम कठोर कदम से भी मिटाना संभव हो सकता था। उन्होंने लिखा है कि पाकिस्तान को अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करना चाहिये। कनाडा जैसे देशों मे भी सांप्रदायिक मुद्दे हमेशा से रहे हैं पर आज भी अंग्रेज और फ्रांसीसी एक साथ रहते हैं, तो क्या हिंदु और मुसलमान भी साथ नहीं रह सकते। उन्होंने चेताया कि दो देश बनाने के समाधान का वास्तविक क्रियान्वयन अत्यंत कठिनाई भरा होगा। विशाल जनसंख्या के स्थानान्तरण के साथ सीमा विवाद की समस्या भी रहेगी। भारत की स्वतंत्रता के बाद होने वाली हिंसा को ध्यान मे रख कर यह भविष्यवाणी कितनी सही थी|
संविधान निर्माण
अपने सत्य परंतु विवादास्पद विचारों और गांधी व कांग्रेस की कटु आलोचना के बावजूद बी आर अम्बेडकर की प्रतिष्ठा एक अद्वितीय विद्वान और विधिवेत्ता की थी जिसके कारण जब, 15 अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, कांग्रेस के नेतृत्व वाली नई सरकार अस्तित्व मे आई तो उसने अम्बेडकर को देश का पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। 29 अगस्त 1947 को, अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। अम्बेडकर ने मसौदा तैयार करने के इस काम मे अपने सहयोगियों और समकालीन प्रेक्षकों की प्रशंसा अर्जित की। इस कार्य में अम्बेडकर का शुरुआती बौद्ध संघ रीतियों और अन्य बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन बहुत काम आया।
संघ रीति मे मतपत्र द्वारा मतदान, बहस के नियम, पूर्ववर्तिता और कार्यसूची के प्रयोग, समितियाँ और काम करने के लिए प्रस्ताव लाना शामिल है। संघ रीतियाँ स्वयं प्राचीन गणराज्यों जैसे शाक्य और लिच्छवि की शासन प्रणाली के निदर्श (मॉडल) पर आधारित थीं। अम्बेडकर ने हालांकि उनके संविधान को आकार देने के लिए पश्चिमी मॉडल इस्तेमाल किया है पर उसकी भावना भारतीय है।
अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया संविधान पाठ मे संवैधानिक गारंटी के साथ व्यक्तिगत नागरिकों को एक व्यापक श्रेणी की नागरिक स्वतंत्रताओं की सुरक्षा प्रदान की जिनमें, धार्मिक स्वतंत्रता, अस्पृश्यता का अंत और सभी प्रकार के भेदभावों को गैर कानूनी करार दिया गया। अम्बेडकर ने महिलाओं के लिए धरा 370 व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकारों की वकालत की और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों मे आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए सभा का समर्थन भी हासिल किया, भारत के विधि निर्माताओं ने इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हे हर क्षेत्र मे अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जबकि मूल कल्पना मे पहले इस कदम को अस्थायी रूप से और आवश्यकता के आधार पर शामिल करने की बात कही गयी थी। 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया। अपने काम को पूरा करने के बाद, बोलते हुए, अम्बेडकर ने कहा :
मैं महसूस करता हूं कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है पर साथ ही यह इतना मज़बूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़ कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नही होगा कि हमारा संविधान खराब था बल्कि इसका उपयोग करने वाला मनुष्य अधम था।
1951 मे संसद में अपने हिन्दू कोड बिल के मसौदे को रोके जाने के बाद अम्बेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया इस मसौदे मे उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांग की गयी थी। हालांकि प्रधानमंत्री नेहरू, कैबिनेट और कई अन्य कांग्रेसी नेताओं ने इसका समर्थन किया पर संसद सदस्यों की एक बड़ी संख्या इसके खिलाफ़ थी। अम्बेडकर ने 1952 में लोक सभा का चुनाव एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप मे लड़ा पर हार गये। मार्च 1952 मे उन्हें संसद के ऊपरी सदन यानि राज्य सभा के लिए नियुक्त किया गया और इसके बाद उनकी मृत्यु तक वो इस सदन के सदस्य रहे।
धर्म परिवर्तन
सन् 1950 के दशक में भीमराव अम्बेडकर बौद्ध धर्म के प्रति आकर्षित हुए और बौद्ध भिक्षुओं व विद्वानों के एक सम्मेलन में भाग लेने के लिए श्रीलंका (तब सीलोन) गये। पुणे के पास एक नया बौद्ध विहार को समर्पित करते हुए, डॉ॰ अम्बेडकर ने घोषणा की कि वे बौद्ध धर्म पर एक पुस्तक लिख रहे हैं और जैसे ही यह समाप्त होगी वो औपचारिक रूप से बौद्ध धर्म अपना लेंगे। 1954 में अम्बेडकर ने म्यानमार का दो बार दौरा किया; दूसरी बार वो रंगून मे तीसरे विश्व बौद्ध फैलोशिप के सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये। 1955 में उन्होने 'भारतीय बौद्ध महासभा' या 'बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया' की स्थापना की। उन्होंने अपने अंतिम महान ग्रंथ, 'द बुद्ध एंड हिज़ धम्म' को 1956 में पूरा किया। यह उनकी मृत्यु के पश्चात सन 1957 में प्रकाशित हुआ। 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर ने खुद और उनके समर्थकों के लिए एक औपचारिक सार्वजनिक समारोह का आयोजन किया। डॉ॰ अम्बेडकर ने श्रीलंका के एक महान बौद्ध भिक्षु महत्थवीर चंद्रमणी से पारंपरिक तरीके से त्रिरत्न ग्रहण और पंचशील को अपनाते हुये बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इसके बाद उन्होने एक अनुमान के अनुसार पहले दिन लगभग 5,00,000 समर्थको को बौद्ध धर्म मे परिवर्तित किया। नवयान लेकर अम्बेडकर और उनके समर्थकों ने विषमतावादी हिन्दू धर्म और हिन्दू दर्शन की स्पष्ट निंदा की और उसे त्याग दिया।[कृपया उद्धरण जोड़ें] भीमराव ने दुसरे दिन 15 अक्टूबर को नागपूर में अपने 2,00,000 अनुयायीओं को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी, फिर तिसरे दिन 16 अक्टूबर को भीमराव चंद्रपुर गये और वहां भी उन्होंने 3,00,000 समर्थकों को बौद्ध धम्म की दीक्षा दी। इस तरह केवल तीन में भीमराव ने 10 लाख से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित किया। अम्बेडकर का बौद्ध धर्म परिवर्तन किया। इस घटना से बौद्ध देशों में से अभिनंदन प्राप्त हुए। में इसके बाद वे नेपाल में चौथे विश्व बौद्ध सम्मेलन मे भाग लेने के लिए काठमांडू गये। उन्होंने अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध या कार्ल मार्क्स को 2 दिसंबर 1956 को पूरा किया।
अम्बेडकर ने दीक्षाभूमि, नागपुर, भारत में ऐतिहासिक बौद्ध धर्मं में परिवर्तन के अवसर पर,14 अक्टूबर 1956 को अपने अनुयायियों के लिए 22 प्रतिज्ञाएँ निर्धारित कीं जो बौद्ध धर्म का एक सार या दर्शन है। डॉ॰ भीमराव आंबेडकर द्वारा 10,00,000 लोगों का बौद्ध धर्म में रूपांतरण ऐतिहासिक था क्योंकि यह विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण था। उन्होंने इन शपथों को निर्धारित किया ताकि हिंदू धर्म के बंधनों को पूरी तरह पृथक किया जा सके। भीमराव की ये 22 प्रतिज्ञाएँ हिंदू मान्यताओं और पद्धतियों की जड़ों पर गहरा आघात करती हैं। ये एक सेतु के रूप में बौद्ध धर्मं की हिन्दू धर्म में व्याप्त भ्रम और विरोधाभासों से रक्षा करने में सहायक हो सकती हैं। इन प्रतिज्ञाओं से हिन्दू धर्म, जिसमें केवल हिंदुओं की ऊंची जातियों के संवर्धन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया, में व्याप्त अंधविश्वासों, व्यर्थ और अर्थहीन रस्मों, से धर्मान्तरित होते समय स्वतंत्र रहा जा सकता है। ये प्रतिज्ञाए बौद्ध धर्म का एक अंग है जिसमें पंचशील, मध्यममार्ग, अनिरीश्वरवाद, दस पारमिता, बुद्ध-धम्म-संघ ये त्रिरत्न, प्रज्ञा-शील-करूणा-समता आदी बौद्ध तत्व, मानवी मुल्य (मानवता) एवं विज्ञानवाद है।
मृत्यु
1948 से, अम्बेडकर मधुमेह से पीड़ित थे। जून से अक्टूबर 1954 तक वो बहुत बीमार रहे इस दौरान वो कमजोर होती दृष्टि से ग्रस्त थे। राजनीतिक मुद्दों से परेशान अम्बेडकर का स्वास्थ्य बद से बदतर होता चला गया और 1955 के दौरान किये गये लगातार काम ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। अपनी अंतिम पांडुलिपि बुद्ध और उनके धम्म को पूरा करने के तीन दिन के बाद 6 दिसम्बर 1956 को अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण नींद में दिल्ली में उनके घर मे हो गया। 7 दिसंबर को मुंबई में दादर चौपाटी समुद्र तट पर बौद्ध शैली मे अंतिम संस्कार किया गया जिसमें उनके लाखों समर्थकों, कार्यकर्ताओं और प्रशंसकों ने भाग लिया। उनके अंतिम संस्कार के समय उन्हें साक्षी रखकर उनके करीब 10,00,000 अनुयायीओं ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली थी, ऐसा विश्व इतिहास में पहिली बार हुआ।
मृत्युपरांत अम्बेडकर के परिवार मे उनकी दूसरी पत्नी सविता आंबेडकर रह गयी थीं जो, जन्म से ब्राह्मण थीं पर उनके साथ ही वो भी धर्म परिवर्तित कर बौद्ध बन गयी थीं, तथा दलित बौद्ध आंदोलन में भीमराव के बाद (भीमराव के साथ) बौद्ध बनने वाली वह पहिली व्यक्ति थी। विवाह से पहले उनकी पत्नी का नाम डॉ॰ शारदा कबीर था। डॉ॰ सविता अम्बेडकर की एक बौद्ध के रूप में 29 मई सन 2003 में 94 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई, अम्बेडकर के पौत्र, प्रकाश यशवंत अम्बेडकर, भारिपा बहुजन महासंघ का नेतृत्व करते है और भारतीय संसद के दोनों सदनों मे के सदस्य रह चुके है।
कई अधूरे टंकलिपित और हस्तलिखित मसौदे अम्बेडकर के नोट और पत्रों में पाए गए हैं। इनमें वैटिंग फ़ोर ए वीसा जो संभवतः 1935-36 के बीच का आत्मकथानात्मक काम है और अनटचेबल, ऑर द चिल्ड्रन ऑफ इंडियाज़ घेट्टो जो 1951 की जनगणना से संबंधित है।
एक स्मारक अम्बेडकर के दिल्ली स्थित उनके घर 26 अलीपुर रोड में स्थापित किया गया है। अम्बेडकर जयंती पर सार्वजनिक अवकाश रखा जाता है। 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। कई सार्वजनिक संस्थान का नाम उनके सम्मान में उनके नाम पर रखा गया है जैसे हैदराबाद, आंध्र प्रदेश का डॉ॰ अम्बेडकर मुक्त विश्वविद्यालय, बी आर अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय- मुजफ्फरपुर, डॉ॰ बाबासाहेब आंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र नागपुर में है, जो पहले सोनेगांव हवाई अड्डे के नाम से जाना जाता था। अम्बेडकर का एक बड़ा आधिकारिक चित्र भारतीय संसद भवन में प्रदर्शित किया गया है।
मुंबई मे उनके स्मारक हर साल लगभग पंधरा लाख लोग उनकी वर्षगांठ (14 अप्रैल), पुण्यतिथि (6 दिसम्बर) और धम्मचक्र परिवर्तन् दिन (14 अक्टूबर) नागपुर में, उन्हे अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए इकट्ठे होते हैं
साभार- विकीपीडिया

Thursday, 12 April 2018

अपने आपको दलित हितैषी बताने वाली कांग्रेस पार्टी का काला सच।


डॉ. भीमराव अंबेडकर जी को 1952 और फिर 1954 के उपचुनाव के दौरान लोकसभा में जाने से राकने के लिए कांग्रेस ने अपने प्रत्‍याशी उतारे थे ।
- नेहरु ने स्‍वयं बाबा साहब अंबेडकर जी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया।
-बाबा साहब की मृत्‍यु के 34 साल बाद भाजपा समर्थित सरकार द्वारा उन्‍हें भारत रत्‍न दिया गया। ये कार्य कांग्रेस द्वारा क्‍यों नहीं किया गया? कांग्रेस ने इतने वर्षों तक राष्‍ट्र के प्रति उनके योगदान की उपेक्षा की।
-मोदी सरकार द्वारा बाबा साहब के जीवन से जुड़े स्‍थानों को 'पंच तीर्थ' के रूप में विकसित किया जा रहा है। कांग्रेस बताएगी कि उनसे बाबा साहब से जुड़ी समृतियों और विरासत को भुलाने का हर संभव प्रयास क्‍यों किया?
-संसद भवन के सेंट्रल हाल में बाबा साहब का तेल चित्र लगाने में कांग्रेस ने क्‍यों आपत्ति उठाई थी।
-इतने सालों के शासन के बाद भी कांग्रेस को 26 नवंबर को सविंधान दिवस मनाने का ख्‍याल क्‍यों नहीं आया?
-पहली बार बाबा साहब की जयंती पर संसद में दो दिन तक चर्चा (26-27 नवंबर 2015) मोदी सरकार ने कराई। कांग्रेस ने कभी ये पहल क्‍यों नहीं की?
-पहली बार संयुक्‍त राष्‍ट्र समेत विश्‍व के 102 देशों में बाबा साहब की जयंती मनाई गई (14 अप्रैल 2016) लेकिन कांग्रेस को इस प्रकार का विचार क्‍यों नहीं आया?
-मोदी सकरार द्वारा 2016 में अनुसूचित जाति तथा जनजाति (अत्‍याचार निवारण) संशोधन अधिनियम को और सुदृढ़ किया गया। कांग्रेस सालों से इस पर हाथ पर हाथ धरे क्‍यों बैठी रही?
-2007 में जब कांग्रेस की सहयोगी मायावती ने एससी एसटी एक्‍ट को कमजोर करने का प्रयास किया, तब राहुल गांधी कहां सो गया था।
-जब कांग्रेस अल्‍पसंख्‍यकों के लिए आरक्षण की मांग करती है, तो क्‍या वो ये आरक्षण एससी एसटी कोटे से देने की मांग नहीं करती?
-वर्ष 2009 से 2013 के बीच जब कांग्रेस सत्‍ता में थी, तब दलितों के खिलाफ अपराधों में 17.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। दलितों के खिलाफ अपराध के 94 मामले प्रतिदिन दर्ज हुए और वर्ष 2013 में प्रतिदिन 5 दलित महिलाओं से बलात्‍कार हुआ, तब इन घटनाओं के दौरान क्‍यों नहीं दिखा गांधी परिवार का दलित प्रेम?
ये वही लोग है जिन्होंने भारतीय राजनीति का सहारा लेकर भारत देश को बर्बाद किया है। जो 70 वर्ष में इस देश में जातिवाद का बीज तक न खोद सकी । तो अब जीतने के लिए कितने बीज बोएगी।
ज़रा स्वयम विचार करें-

Wednesday, 28 February 2018

अभिव्यक्ति की आड़ में ये क्या हो रहा...

सन् 1947 में भारत आजाद हुआ था और देश के पहले राष्ट्रपति डाॅ राजेन्द्र प्रसाद थे और पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को बनाया गया था। उस दौरान देश के संविधान निर्माता डाॅ भीमराव अम्बेडकर द्वारा रचित संविधान पारित किया गया जो 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया जिसको लागू होते इस दिन को गणतंत्र का नाम दे दिया गया और अभिव्यक्ति की आजादी भी दी गई क्योंकि यह संविधान प्रजातंत्र को समक्ष रखकर लिखा गया था जिसमें कई ऐसे अनुच्छेद लिखे गए जिनके द्वारा आम जनमानस का जीवन सरल हो सके और  उन्हें किसी की तानाशाही न झेलनी पड़े।
जातिगत आरक्षण की आग 
लेकिन वर्तमान में कुछ मामले ऐसे उत्पन्न किए गये हंै जिससे की संविधान पर सवाल उठाये जा सके। सबसे ज्यादा उठाया जाने वाला मामला जातिगत आरक्षण है जिसको लेकर समाज आज भी बंटा हुआ है और राजनेता इस मुद्दे पर राजनीति करने से गुरेज तक नहीं करते हैं और जाति को इस प्रकार प्रयोग में लाते हैं जिससे उनके वोट बैंक मजबूत रहें। जो भारतीय जातिगत व्यवस्था को न तो खत्म होने दे रहें हैं और नाहिं उनका खात्मा ही कर रहें हैं जिसका सीधा अर्थ यही निकलता है कि राजनेता अपनी राजनीति को चमकाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं चाहें वह देशहित में हो या देशाहित में हो। वह यह कतई नहीं चाहते की जाति का भेद सुलझे बल्कि वह उसे और पैचिदा बना देते हैं अपनी गत रणनीतियों और गलत भाषणों के द्वारा, जो कई मायनों में देश को अपने आप में जलाता है और रोटियां वो सेकते हैं। शहरों में जातिगत आग कम है लेकिन गांव देहात में लोग अब तक जल रहे हैं जो बहुत ही असहनीय है।
अभिव्यक्ति की आजादी को गलत लाभ।
संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का राजनेता गलत लाभ उठा कर सर्वाेच्च पद पर बैठे व्यक्तियों पर टीका टिप्पणी करते नजर आ जाते हैं जिसका सीधा अर्थ निकाला जा सकता है कि वे कितने अभिव्यक्त हैं अपनी आजादी के प्रति। एक प्रकार से देखा जाये तो अभिष्कत होकर लोग अपनी व्यथा को अभिव्यक्ति का नाम दे कर एक दूसरे पर किचड़ उछालने से बाज नहीं आते हैं यदि कोई इस पर कार्यवाही करना चाहे तो अभिव्यक्ति के उस अनुच्छेद 19 (1) की दुहाई देते हैं जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी दी गई है।
गत वर्ष जेनयू जैसे संस्थान ने, अभिव्यक्ति की आजादी का भर पूर लाभ उठाया था जिसके कारण वे मीडिया से लेकर सरकार की नजरों में अपनी जगह बना पाये जो एक हद तक अमानविय क्रियाकलाप था। जिसमें अपने ही देश की कथनी करनी पर सवाल उठाये गये थे जो बेहद शर्मसार करने वाले थे लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी को मध्य रखकर अपने ही देश के खिलाफ देश विरोधी नारों से जेनयू गूंज गया था जो दुर्भाग्य पूर्ण था जिनका समर्थन देश को तोड़ना था और आंतकवादियों गतिविधियों को बढ़ना था जिसने राजनैतिक व्यक्तियों के लिए राहें खोल दी और वे खुद को साबित करने के लिए देश के खिलाफ नारों को सही साबित करने में जुट गये थे जिसके कारण कई पार्टियों ने अभिव्यक्ति की आजादी की जिम्मेदारी को भी नकार दिया था वह समय भारतीयों के लिए बहुत कष्टकारी था, जिन विद्यार्थीयों ने अभिव्यक्ति की आजादी की धज्जियां उड़ाई थी उन पर प्रशासन की लाठी चल नहीं पाई  और वे अभिव्यक्ति की चादर लपेट कर देश को तोड़ने में आज भी पीछे नहीं हैं जो कहीं हद तक देश के साथ गद्दारी ही है और इनके समर्थन में वे पार्टियां है जिनमें अनपढ़-गवार नेता ही बैठे हैं जिन्हें अपना स्वार्थ दिखता है।
अभिव्यक्ति के नाम पर देश से कटता हुआ कश्मीर 
पिछले दिनों जो कुछ भी कश्मीर में हुआ वो बेहद शर्मनाक है। अपने ही देश की सेना पर पत्थरबाजी वो अभिव्यक्ति के नाम पर देश से विद्रोह कहां तक ठीक है ये प्रश्न सर्वव्यापी हो गया है जिसको लेकर राजनीति चर्म पर है रोजना टीवी पर लाताड़बाजी और गालीगलूज वाली भाषा से देश स्तब्ध है लेकिन कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है सेना के साथ वह भी असहनीय है जो अभिव्यक्ति के नाम से ही अपना नाम उंचा करते हैं वो यह भी नहीं सोचते किसको नुकसान पहंुचा रहे हैं और किस का समर्थन कर रहें हैं। आंच लगाने से लेकर पत्थर मारने तक में वो अभिव्यक्ति को ही देखते हैं जिसके कारण सेना पर पत्थबाजी कर सकें लेकिन वो यह भूल जाते हैं कि भारत सशक्त देश है जिसकी सेना विश्व की न. 1 सेना में आती है। बरहाल आंतकीवादियों की सोच से लेकर राजनेताओं की सोच ने वहां के जनमानस के रगों को आजादी की वह दुर्भावना भर दी है जो अब निकाली मुश्किल है जिससे वह लोग अपने ही बच्चों का स्कूल, खेलने का मैदान तक छीनने को राजी है और अपने ही देश के खिलाफ नारेबजी में व्यस्त हैं जिनको लेकर विश्व मंच पर भी राजनेताओं को लताड़ खानी पड़ी है लेकिन अभिष्क्त व्यक्ति आजादी नहीं चाहता बल्कि अभिव्यक्ति से अपने भारत के साथ खड़ा रहना चाहता जो कुछ लोगों को पसंद नहीं है।
बरहाल सरकारों को एक नए अनुच्छेद में 19 (1) में बदलाव करना ही चाहिए जिससे की अभिव्यक्ति की आड़ में जेनयू  और कश्मीर जैसे कांड न दोहरायें जा सके जो संपूर्ण भारतीय समाज पर धब्बा हैं।
                                                                                                                 -सोहन सिंह

Wednesday, 21 February 2018

भारतीय जनता को रहना होगा तैयार

कहने को तो हमारा देश आजाद है लेकिन आजादी उन तबकों तक ही सीमित है जो अपने आप को भारत का सिरमौर मानते जिनके एक इशारे पर जनता क्या राजनेता भी नतमस्तक हो जाते हैं जिनके लिए लोकतंत्र की परिभाषा भी बदल दी जाती है। लेकिन सवाल यह कि ये व्यवस्थायें उन चंद लोगों के लिए क्यों बदल जाती हैं जो वह कहते उसको सुनकर हमारे हुकमरान नतमस्तक हो कर क्यों हां में हां मिलाते हैं क्यों उनके लिए नए दरवाजें खोलते हैं।
कुछ वर्ष पहले तक भारत देश में राजनेता घोटाले बाज थे पर अब हमारे व्यापारी देश के कर्णधार देश को लूट कर देश में  फरार हो रहें हैं इस में सबसे पहला नाम तो विजय माल्या का आता है जो हमारे भारत की बैंकों को 11000 करोड़ को चूना लगा कर विदेशी धरती पर भारत की खून पसीने की कमाई को लूटा रहा है जिसका न तो वो हिसाब दे सकता है और न ही हमारी सरकार उस से ंिहसाब मांगने की स्थिति में नजर आती है लगातार हो रही किवायतों के बाद भी विजय माल्या किसी भी न्यूज चैनल पर भारत की जनता और भारत की बैंक प्रणाली पर उंगली उठाता नजर आता र्है जिसे देख कर आम जनता का खून तो खोलता है लेकिन सरकार में बैठे नुमांइदें क्यों कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, लगातार इस तरह के गमन, घोटाले सरकार के सामने आ रहें हैं फिर भी सरकार उन घोटालों की धुरी तक नहीं पंहुच पाई  क्या उसकी वाणिज्य प्रणाली में सेंध लग गई है, और उनकी सूचनात्मक प्रतिक्रिया भी खत्म हो सी गई। जिसका एक ताजा उदाहरण कुछ दिन पहले ही आया है नीरव मोदी के रूप में, नीरव मोदी पेशे से तो हीरा व्यापारी है लेकिन संपर्क सूत्र इसके बहुत उंचे हैं तभी यह सुर्खियों में छाया हुआ है जिस तरह हजारों करोड़ का लोन भारतीय बैंकों ने विजय माल्या हो दिया था उसी कड़ी में नीरव मोदी भी जुड़ गया है जिसको 110000 करोड़ तो नहीं बल्कि 33000 करोड़ का लोन पास किया गया है जिसको लेकर वह विदेश भाग गया है। लेकिन अब सवाल यह उठता यह है कि बैंको को 11000 करोड़ के घोटाले से नसीहत सही ढंग से प्राप्त नहीं हुई थी जिसका प्रणाम है वर्तमान में ताजा 33000 करोड़ का घोटाला जिससे बैंको की स्पष्ट रूप से लापरवाही देखी जा सकती है।
वहीं अगर हम भारतीय गरीब जनता और किसानों की बात करें तो बैंको की प्रणाली साफतौर पर आदेश देती है कि जितना कर्ज लिया है उसका 12 प्रतिशत की दर से ब्याज देना अनिवार्य है लेकिन वो कौन से मामले जिनमें व्यापारी वर्ग को ये करोड़ों का कर्ज दे देते हैं, और उनसे इनकी मांगने की हिम्मत तक नहीं होती। वहीं दूसरी ओर भारतीय गरीब जनता की जमीन जायदाद तक कब्जा कर लेते हैं जिनका आर्थिक बोझ इतना ज्यादा होता है कि उसके तले दब कर गरीब आत्मदाह तक कर लेता हैं लेकिन बैंकों की कार्य प्रणाली जस की तस काम करती है और उसके जाने के बाद भी उसके परिवार से उस कर्ज की पाई पाई वसूलती है जो उस परिवार के लिए बहुत ही कष्टदायक होता है। लेकिन इस तरह कर्ज वसूली यह उन लोगों पर नहीं करते जो हजारों-करोड़ का कर्ज लेकर देश से फरार हो जाते हैं और विदेश में बैठ कर भारतीय बैंकों को धमकाते हैं कि अगर ‘‘हिम्मत है तो हमसे कर्ज लेकर दिखायें’’ यह शब्द भारत के उस बड़े व्यापारी के हैं जो इस समय देश का हजारों करोड़ का कर्ज लेकर देश से फरार है और हमारे बैंक बस हाथ पर हाथ रख कर प्रशासन की ओर देख रहें हैं और हमारे देश के नेता एक दूसरे पर ही किचड़ उछाल रहें हैं कि किस की सरकार में नीरव मोदी ने कर्ज लेना प्रारंभ किया था जो बहुत ही शर्मनाक है।
इसका सीधा अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि यदि नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे देश के गद्दार व्यापारियों ने अपने हिस्से की रकम बैंको को अदा नही की तो बैंक वह रकम हमारे उपर टैक्स लगाकर या अन्य ओर कोई कर लगाकर भारतीय जनता से ही वसूलेगी जो पुराने जामने की कर व्यवस्था का ही अंग होगी जिसके लिए भारतीय जनता को तैयार रहना होगा। जिस तरह के हालात है उस तरह से तो अनुमान यही लगाया जा सकता है कि सरकार नीरव मोदी और विजय माल्या को देश में लाने में सक्षम नहीं है और नाहिं हमारे बैंक इतना बोझ उठाने में सक्षम जिसकी भरपाई वो हम लोगों पर ‘‘कर’’ लगा कर ही करने वाली है।

                                                                                                         -Sohan Singh