Monday, 22 July 2013

उन से नाता तोड चुका हूं

इस समाज की परछाई को 
छोड चला इस रूसवाई को 
राहों की बेगानी डगर में 
चला होकर मगन मैं
साथ न लिया किसी को मैने 
अकेला ही सफर करने चला मैं 
राहों कि इस बेगानी डगर में 
इस समाज की परछाई को छोड चला मैं
समय से पहले इन राहों का मुख मोड चला मैं 
क्‍योंकि यादों क‍ि बारातों से उब गया हूं 
उन भटकती यादों की राहों को भूल गया हूं 
राहों के शूल कि चुभन में मगन हुआ हूं 
सारी तकलीफ से अब दूर हुआ हूं 
अब रक्‍त का संचार हुआ हैं 
इन खुली वादियों से प्‍यार हुआ है 
अब नहीं देखना चाहता मुडकर 
उन बधाओं को जो रूककर कह रही 
मुड जा अपनी राहों में 
जिनको अब मैं छोड चुका हूं 
उन राहों से नाता तोड चुका हूं
इस समाज की परछाई को मैं छोड चुका हूं 
नहीं मैं जाना चाहता उन जिनको मैं भूल चुका 
अब उन से नाता तोड चुका हूं..............
                      अब उन से नाता तोड चुका हूं..................
                                  अब उन से नाता तोड चुका हूं...................




Thursday, 18 July 2013

सत्‍ता के गलियारों में जनता कि चढ रही बलि,कब तक सहेगे


बिहार राज्‍य में जो कुछ भी हो रहा है उसका जिम्‍मेदार कौन है कुछ इस प्रकार के प्रश्‍न,आज हर उस भारतीय के मन को कुरेद रहे है जिन्‍होने इस प्रकार का मिड डे मिल का कांड सुना या देखा है आज हर वो व्‍यक्ति परेशान है जिसको भारत से प्‍यार है ओर जो इस देश को अपना मानता है जिसके लिए वो हमेशा ही तैयार रहता है लेकिन कुछ अपवाद हमारी चुनी हुई व्‍यवस्‍था में कुंडली मार करके बैठे है जो मात्र  अपने सत्‍ता मे पकड बनाने हेतू किसी भी प्रकार के काम से नहीं चुकते चाहे उसमें किसी की भी जान जाए कोई मरे या जिए उन्‍हें इन बातों से क्‍या लेना वो अपनी स्‍वार्थ सिद्व के लिए किसी को भी जहर देने के लिए तैयार हैं
      बिहार में एक के बाद एक मिड डे मिल कांड ने सता में बैठे उन सत्‍ताधीशों की सच्‍चाई से पर्दा हटा दिया है जो मासूम बच्‍चों की जिन्‍दगी के साथ भी खेल सकते बशर्ते उन्‍हे उनमें फायदा दिखाई देता हो लेकिन जांच के नाम पर आपस में लडना भली-भांति जानते हैं  लेकिन उनको आम जनता के सरोकारो से क्‍या लेना-देना वो तो सिर्फ अपने वादों की खाते है और रात को चैन की नींद सो जाते है मिड डे मिल प्रकरण में उन्‍होने आदेश तो पारित कर दिए है लेकिन अब देखना ये है कि रिर्पोट कब तक आती है या आती ही नहीं ा उन्‍हे उस मां के साथ कोई सरोकार नहीं जिनकी संतान इस मिड-डे मिल का शिकार हुई क्‍योंकि हादसा हुआ बिहार में राजनीति शुरू हो गई दिल्‍ली में, सब राजनेता भूल गये उस मां कि सुध लेना जिसने अपना मासूम बच्‍चा मात्र पढाई करने के लिए भेजा था और उसको दूषित(जहर ) खाना खिलाकर मार दिया गया,इस जिम्‍मेदार वो अपने ही पडोसी पार्टी के मेम्‍बर को ठेहरा रहे है लेकिन कोई भी इस की जांच की ओर नहीं देख रहा है  लकिन ये कांड विहार में हुआ है इसके तार बीजेपी से भी जुडें जा रहे है लेकिन ऐसे ये नेता आपस मे बहस करते आरोप-प्रत्‍यारोप करते रहे तो इस शर्मनाक घटना को अजांम देने वाले लोग कहीं छूट न जांए लेकिन  सत्‍ता का चौथा स्‍तंभ जिसकी आज तारीफ करने का मन कर रहा है उसने इस पूरे प्रकरण को खोल कर रख दिया है जो अपने कर्तव्‍य को भलि-भांति निभा रहा है लेकिन इस के बावजूद भी बिहार में इस कांड के आरापियों की गिफतारी तक नहीं हुई ा अब सवाल ये उठता है कि सरकार का तो इस में कहीं हाथ नहीं क्‍योंकि इतना सब होने के बाद में भी जांच एंजेसियों के हाथ खली हैं लेकिन बिहार के मुख्‍य मंत्री को क्‍या लेना, इस अनपढ गंवार जनता से, वोट ही तो मंगना होगा वो मांग लेगें ज्ररा सा लालच देकर ,लेकिन उन बच्‍चों की सुध लेने क्‍यों जाएगे जो जहरीला खाना खा कर मर गए उनका अपना उसमें कोई नहीं था शायद ये भी एक कारण हो सकता है उन्‍हें न देखने का,लेकिन राजनेताओं को एक मुद्वा मिल गया राजनीति करने का एक दूसरे पर आरोप मड्ने का,कि भई हम होते सत्‍ता में तो ऐसा कतई नहीं होने देते ,लेकिन कब तक कहां तक  जनता इनके झूठे वादो को सच्‍च मानकर इन्‍हें सत्‍ता कि गददी पर बैठाती रहेगीा आखिर कब तक, जिस दिन इस प्रश्‍न का जवाब मिल गया तो शायद कभी आम आदमी का दम नहीं निकलेगा
       

Monday, 15 July 2013

साहित्य, संस्कृति व भाषा का अन्तरराष्ट्रीय मंच

यह सर्वविदित है कि महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पोषक थे। इसके पीछे वे तर्क देते थे कि यह व्यवस्था विश्व के अधिकांश उन्नत समाजों में देखने मिलती है। वे जाति भेद को वर्ण भेद से अलग मानते थे। वे मानते है कि वर्ण व्यवस्था में ऊँच-नीच की भेद वृत्ति नहीं है। वे मनु की तरह वर्गो को उच्च और निम्न बड़ा या छोटा नहीं मानते है।
गांधीजी के हरिजन उत्थान मुद्दे पर निम्न चार बिन्दुओं को उद्धृत किया जाता है जो इस प्रकार है-
  1. पुना पैक्ट जिसमें उन्होंने यरवदा जेल में अनशन किया था।
  2. अपनी पत्रिका का नाम हरिजन (गांधीजी का अँगरेज़ी साप्ताहिक विचार पत्र) रखना।
  3. साबरमती आश्रम में अछुत जातियों को शामिल करना।
  4. दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन प्रवास करना।
यहाँ पर हमें गांधीजी के व्दारा समय समय पर किये गये इन कार्यो की एतिहासिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पहलूओं पर चर्चा करेगें साथ-साथ अपना ध्यान इस ओर भी आकृष्ट करेगे की इस मुद्दे पर उनके विचार क्या थे तथा व्यवहारिक धरातल पर उनके विचार क्या प्रभाव छोड़ते है।
वैसे गांधी के परिप्रेक्ष्य में दलित (यहाँ हरिजन कहना उचित होगा) के विषय में चर्चा करना एक ग़ैर ज़रूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि निगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज़्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नहीं थे।
एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है-वर्ण व्यवस्था का सिध्दांत ही जीवन निर्वाह तथा लोक-मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नहीं मिला तो व्यक्ति उस काम को कार सकता है। बशर्ते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करे, उसे वह निष्काम भाव से, सेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।
यानी जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम मनोरंजन के लिए करें (व्यवसाय के रूप में नहीं)। इसी प्रकार गाय चराने का पुश्तैनी कार्य करने वाले चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैं, लेकिन पूजा से लाभ नहीं प्राप्त कर सकते । ज़ाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नहीं चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अतः यहाँ गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह बंदिश केवल निम्न जातियों के लिए तय की गई ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और आरामतलब तथा उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहाँ स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।
कहीं-कहीं पर गांधीजी के विचार साफ़-साफ़ बुजुर्वावर्ग को सुरक्षित करने हेतु रखे गये मालूम होते है-गांधीजी के समाज में विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर, गाँव का मुन्शी, बड़ा सेनापति, छोटा सिपाही, मजदूर और भंगी सब एक से खानदानी माने जायेंगे। सबकी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति समान होगी इससे प्रतिष्ठा या आय वृध्दि के लिए धन्ध छोड़कर दूसरा धन्धा करने का प्रलोभन नहीं रहेगा।
यानी प्रोफ़ेसर और भंगी दोनें खानदानी माने जायेगें। क्यों माने जायेगे कैसे माने जायेंगे, ये स्पष्ट नहीं है। लेकिन धन्धा बदलने की पाबंदी गांधी स्पष्ट लगाते हैं। जो आज के दौर में प्रासंगिक बिल्कुल भी नहीं है। पहले भी नहीं था। गांधी के क़रीबी एवं फ़ाईनेन्सर टाटा लुहार तो नहीं थे लेकिन लुहार का काम (व्यवसाय) करते थे। ऐसे ही कई उनके क़रीबी थे जो ग़ैरजातिगत पेशा अपनाए हुए थे। गांधी अपनी आत्मकथा में ख़ुद को एक पंन्सेरी बताते है लेकिन सियासत करते थे।
यहाँ पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा कि गांधीजी ये मानते थे कि गँवार का बेटा गँवार और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे मनुष्य अपने पूर्वजों की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह ख़ास गुण लेकर ही पैदा होता है।
गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते हैं। लेकिन एक मेहतर को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नहीं देते है। वे कहते है कि - अपनी संतानों के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति मेहतर है तथा आधुनिक औषधि विज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति एक चमार किन्तु हम उनके कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है। गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते है।
वे एक स्थान पर लिखते है कि ब्राम्हण वंश का पुत्र ब्राम्हण ही होगा, किन्तु बड़े होने पर उससे ब्रामहण जैसे गुण नहीं है तो उसे ब्राम्हण नहीं कहा जा सकेगा। वह ब्राम्हणत्व से च्युत हो जायेगा, दूसरी ओर ब्राम्हण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्राम्हण माना जायेगा यद्यपि वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नहीं करेगा। यानी कोई भी ग़ैर ब्राम्हण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे।
गांधीजी के इन आदर्शों के विपक्ष में डा- अम्बेडकर आपत्ति दर्ज़ कराते है कि जाति-पाँति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदों से भरे बर्तन के समान है। अपने गुणो के आधार पर क़ायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।
ज़्यादातर यह माना जाता है कि 1932 के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा-पोषी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज़ यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। ज़्यादातर साथी पुना पैक्ट के बारे में अवगत है। दरअसल स्वतंत्रता पूर्व डॉ- अम्बेडकर की सलाह पर अँगरेज़ प्रधान मंत्री रैम्जले मैक्डोनल्ड ने 17 अगस्त 1932 में कम्युनल अवार्ड के अंतर्गत दलितों को दोहरे वोट का अधिकार दिया था। जिसके व्दारा दलितों को यह अधिकार प्राप्त होना था कि आरक्षित स्थानों पर केवल वे ही अपनी पसंद के व्यक्ति को वोट देकर चुन सकते थे तथा सामान्य सीटों पर भी वे अन्य जातियों के प्रत्याशियों को वोट देकर अपनी ताक़त दिखा सकते थे। गांधीजी इस प्रस्ताव के विरूध्द थे उन्होंने यह तर्क दिया कि इससे हरिजन हिन्दुओं से अलग हो जायेगे। उन्होंने लगभग 30 दिनों का आमरण अनशन किया। घोर दबाव में दलितों के मसीहा डॉ- अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलित अपने अधिकार से वंचित हो गये। इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।
पुना पैक्ट के संदर्भ में यरवदा जेल में हुए इस अनशन में गांधीजी जीत तो गये लेकिन उन्होंने दलितों की समस्या को काफ़ी क़रीब से देखा एवं महसूस किया। शायद उनके अंदर जलती हुई पश्चाताप का नतीज़ा ही रहा होगा कि उन्होंने अपनी हरिजन सेवक नाम की हिन्दी साप्ताहिक विचार पत्रिका प्रारंभ 1932 की तथा काफ़ी सारे लेख अस्पृश्यता पर केन्द्रित करते हुए लिखा । उन्होंने अपने आश्रम में पैखाने सफाई हेतु लगे भंगी को हटा कर पारी-पारी सभी को पैखाने सफाई कराने के निर्देश दिये। जिस पर उनका उनकी पत्नी से तक़रार भी हुई।
ऐसा कहा जाता है कि महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होंने‘हरिजन शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही इस्तेमाल करना शुरू किया था। दूसरा वाक्या अक़सर सुनाया और बार-बार दोहराया जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि-‘यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूँगा। अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति प्रेम को साबित करने के लिए सुनाते है।
एक दलील और भी दी जाती है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएँ उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी वही यहाँ उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूँगा।
यानी गांधीजी ख़ुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन 12 जनवरी सन 1934 में वे लिखते है-‘एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफ़ादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।यानी गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वक़ालत करते नज़र आते है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रसिध्द अधिकारी कर्नल सलीमन ने अपनी पुस्तक RAMBLINGS IN OUDH सफाई कर्मचारियों की 1834 की हड़तालों का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक से ज़ाहिर है कि सफाई कर्मचारियों की हड़ताल से वे परेशान थे। परन्तु गांधीजी जो सिविल नाफ़रमानी, हड़तालों और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थे, भंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे।
1945 में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारों का समर्थन कर हड़ताल ज़ल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे किन्तु उन्होंने उल्टे अँगरेज़ सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा की । इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है- सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के ख़िलाफ़ मेरी राय वही है जो 1897 में थी जब मै डरबन (द-अफ्रीका) में था। वहाँ एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिए, मैंने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।
इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है- विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमज़ोरी की निषानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नहीं छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीक़े उपलब्ध है। यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मागांधी की दृष्टि में अवैध है।
गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमान, ब्राम्हण या शूद्र नहीं होगा, बल्कि उसकी पहचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृष्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूँढना ज़रूर कहा जाएगा कि जब जक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरण की आशा नहीं की जा सकती। अतः वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है।
इस व्यवस्था के औचित्य के लिए शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करना उचित नहीं। अम्बेडकर ने कहा-शास्त्रों के आदेशों के कारण ही हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन बना हुआ है जिसने हिन्दुओं में ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न की है, जो अस्पृश्यता का मूल कारण है। स्पष्ट है आधुनिक युग में वर्ण विभाजन के आधार पर हिन्दू समाज का संगठन उचित प्रतीत नहीं होता।
डॉ-अंबेडकर इस बारे में आगे कहते हैं- हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार पर पुनः संगठित करना चाहिए जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुता के सिध्दान्त को स्वीकार करता हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की अलंध्यता तभी नष्ट की जा सकती है, जब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।
आख़िर में यही कहा जा सकता है कि दलित संदर्भ में गांधी के विचार प्रासंगिता की कसौटी पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में कस कर देखते। तथा सभी को उच्च कोटि के व्यवसाय अपनाने की आज्ञा देते। समाज में उच्च कोटि तथा निम्न कोटि के व्यवसाय दोनों की ज़रूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आज़ादी गांधी क्यों नहीं देतें, क्यों उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष लेते हैं, आख़िर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही है । इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है।
                                                                              संजीव खुदशाह के पेज से

Saturday, 13 July 2013

दलितों का इतिहास

दलित शब्‍द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्‍यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्‍पीडन हुआ है। रामचंद्र वर्मा ने अपने शब्‍दकोश में दलित का अर्थ लिखा है,मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्‍ट किया हुआ। पिछले छह-सात दशकों में 'दलित' पद का अर्थ काफी बदल गया है। डॉ. भीमराव अंबेडकर के आंदोलन के बाद यह शब्‍द हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अब दलित पद अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली जातियों की आंदोलनधर्मिता का परिचायक बन गया है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से अभिहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्‍मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और उसका पारंपरिक पेशा मानव मल की सफाई करना रहा है। आज भी गांव से शहरों तक में सफाई के कार्यो में इसी जाति के लोग सर्वाधिक हैं।
    भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे जिन्हे उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित 'नीची' जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंन दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। एक बात और जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्घ धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। बुद्घ ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा बुद्घ ने दिखाई वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्घ ही पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्घिक दासता की जंजीरों से मुक्त हो सकें।
यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होने सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज़ उठाता नज़र आता है.....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जिस वक्त दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत रत्न बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी...वक्त था जब हमारा देश भारत ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के ये दासता का समय रहा हो लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में स्वर्णकाल था।
  आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले हैं उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। यूरोप में हुए पुर्नजागरण और ज्ञानोदय आंदोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमा मंडन हुआ। यही मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आर्दश बने। इन आर्दशों की जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। ये अलग बाद है कि औद्योगिकीकरण के चलते इन मूल्यों की जगह सबसे पहले पूंजी ने भी यूरोप में ली...लेकिन इसके बावजूद यूरोप में ही सबसे पहले मानवीय अधिकारों को कानूनी मान्यता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजमी था और पड़ा भी। इसका सीधा सा असर हम भारत के संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद इन्ही मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नज़र आते हैं। भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ. अम्बेडकर ने उठाया। डॉ अम्बेडकर दलित समाज के प्रणेता हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ दौर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था समाज के ताने बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा.और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ.अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।
                                                                               
                                        यह लेख विकिपीडिया से लिया गया है

Tuesday, 9 July 2013

दिल्‍ली का इतिहास

दिल्ली को भारतीय महाकाव्य ‘’महाभारत’’ में प्राचीन इन्द्रप्रस्थ, की राजधानी के रूप में जाना जाता है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक दिल्ली में इंद्रप्रस्थ नामक गाँव हुआ करता था।
अभी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में कराये गये खुदाई में जो भित्तिचित्र मिले हैं उनसे इसकी आयु ईसा से एक हजार वर्ष पूर्व का लगाया जा रहा है, जिसे महाभारत के समय से जोड़ा जाता है, लेकिन उस समय के जनसन्ख्या के कोई प्रमाण अभी नहीं मिले हैं। कुछ इतिहासकार इन्द्रप्रस्थ को पुराने क़िले के आस-पास मानते हैं।
पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिलते हैं उन्हें मौर्य-काल (ईसा पूर्व 300) से जोड़ा जाता है। तब से निरन्तर यहाँ ्जनसन्ख्या के होने के प्रमाण उपलब्ध हैं। 1966 में प्राप्त अशोक का एक शिलालेख(273 - 300 ई पू) दिल्ली में श्रीनिवासपुरी में पाया गया। यह शिलालेख जो प्रसिद्ध लौह-स्तंभ के रूप में जाना जाता है अब क़ुतुब-मीनार में देखा जा सकता है। इस स्तंभ को अनुमानत: गुप्तकाल (सन 400-600) में बनाया गया था और बाद में दसवीं सदी में दिल्ली लाया गया। अशोक के दो अन्य शिलालेख बाद में फ़िरोजशाह तुग़लक़ द्वारा दिल्ली लाया गया।
चंदरबरदाई की रचना पृथवीराज रासो में तोमर वंश राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और लौह-स्तंभ दिल्ली लाया था। दिल्ली में तोमर वंश का शासनकाल 900-1200 इसवी तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया, जिसका समय 1170 इसवी निर्धारित किया गया। शायद 1316 इसवी तक यह हरियाणाकी राजधानी बन चुकी थी। 1206 इसवी के बाद दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी जिसमें खिलज़ी वंश, तुग़लक़ वंश, सैयद वंश और लोधी वंश समते कुछ अन्य वंशों ने शासन किया।
सत्रहवीं सदी के मध्य में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ (1628-1658) ने सातवीं बार दिल्ली बसायी जिसे शाहजहानाबाद के नाम से भी पुकारा जाता है। आजकल इसके कुछ भाग पुरानी दिल्ली के रूप मे सुरक्षित हैं। इस नगर में इतिहास के धरोहर अब भी सुरक्षित बचे हुये हैं जिनमें लाल क़िला सबसे प्रसिद्ध है। जबतक शाहजहाँ ने अपनी राजधानी आगरा में नहीं स्थानांतरित की पुरानी दिल्ली 1638 के बाद के मुग़ल सम्राटो की राजधानी रही। औरंगजेब (1658-1707) ने शाहजहाँ को गद्दी से हटाकर खुद को शालीमार बाग़ में सम्राट घोषित किया। 1857 के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद, अंग्रेजों ने जब बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया उसके बाद भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हुआ। प्रारंभ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परंतु 1911 में औपनिवेशिक राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। बड़े स्तर पर महानगर के पुर्ननिर्माण की प्रक्रिया में पुराने नगर के कुछ भागो को ढहा दिया गया है।
महाभारत काल (1400 ई.पू.) से दिल्ली पांडवों की प्रिय नगरी इन्द्रप्रस्थ के रूप में जानी जाती रही है। कुरूक्षेत्र के युध्द के बाद जब हस्तिनापुर पर जब पांडवों का शासन हुआ तो बडे भाई युधिष्ठिर ने भाईयों को खंडवाप्रस्थ का शासक बनाया जिसकी भूमि बहुत ही बियाबान और बेकार थी, तब मदद के लिये श्रीक्रष्ण नें इन्द्र को बुलावा भेजा, खुद युधिष्ठिर की मदद के लिये इन्द्र नें विश्वकर्मा को भेजा.विश्वकर्मा नें अपने अथक प्रयासों से इस नगर को बनाया और इसे इन्द्रप्रस्थ यानी (इन्द्र का शहर) नाम दिया.
दिल्ली का नाम राजा ढिल्लू के "दिल्हीका"(800 ई.पू.) के नाम से माना गया है,जो मध्यकाल का पहला बसाया हुआ शहर था,जो दक्षिण-पश्चिम बॉर्डर के पास स्थित था.जो वर्तमान में महरौली के पास है.यह शहर मध्यकाल के सात शहरों में सबसे पहला था.इसे योगिनीपुरा के नाम से भी जाना जाता है,जो योगिनी एक् प्राचीन देवी) के शासन काल में था.
लेकिन इसको महत्व तब मिला जब 12वीं शताब्दी मे राजा अनंगपाल तोमर ने अपना तोमर राजवंश लालकोट से चलाया, जिसे बाद में अजमेर के चौहान राजा ने जीतकर इसका नाम किला राय पिथौरा रखा.
११९२ में जब प्रथ्वीराज चौहान मुहम्मद गौरी से पराजित हो गये थे, 1206 से दिल्ली सल्तनत दास राजवंश के नीचे चलने लगी थी. इन सुल्तानों मे पहले सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक जिसने शासन तंत्र चलाया इस दौरान उसने कुतुब मीनर बनवाना शुरू किया जिसे एक उस शासन काल का प्रतीक माना गया है, इसके बाद उसने कुव्वत-ए-इस्लाम नामक मस्जिद भी बनाई जो शायद सबसे पहली भी थी.
अब शासन किया िख़लजी वंश(पश्तून) ने जो दूसरे मुस्लिम शासक थे जिन्होने दिल्ली की सल्तनत पर हुकुमत चलायी,इख्तियार उद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और ग़ुलाम वंश चलाने वाले जलाल उद्दीन फ़िरुज ख़िलजी ने १२९० से १३२० तक खिलजी राजवंश चलाया.
१३२१ से एक और राजवंश चला जो तुग़लक़ वंश के नाम से जाना जाता है,जो मुस्लिम समुदाय तुर्क से मानी जाती है उसमें गयासुद्दीन तुग़लक़ और उसके बेटे ने जो कामयाब शासक भी था जिसका नाम मुहम्मद बिन तुग़लक़ था ने सफ़लता से शासन किया,उसके बाद उसके भतीजे फ़िरोज शाह तुग़लक़ ने भी राज किया लेकिन 1388 में उसकी म्रत्यु के बाद तुग़लक़ राजवंश का पतन होने लगा.
उसके बाद 1414 से 1451 तक सैयद राजवंश भी चला फ़िर उसके बाद 1451 से लोधी राजवंश चला जो क्रमशः बाहलुल लोधी,सिकंदर लोधी और इब्राहिम लोधी ने सन 1526 तक दिल्ली सल्तनत पर राज किया,
दौलत खान लोधी के बुलावे पर बाबर जो एक मुगल था उसने हिन्दुस्तान पर चढाई कर दी और लोधी वंश का पतन सन 1526 पानीपत की लडाई में कर दिया था. 1526 बाबर(जहीरूद्दीन मोहम्मद) के बाद 1530 में हुमांयु (नसीरुद्दीन अहमद) ने बाहडोर संभाली. इनके बीच में सन 1540 में सूरी राजवंश हुआ जिसने इस देश पर सालों तक राज किया,1540 में इसके बाद 1658 में औरंगजेब(मुहिउद्दीन मोहम्मद) और 1707 में शाह आलम प्रथम (मुअज्जम बहादुर) ने सन 1712 तक शासन किया.



Sunday, 7 July 2013

आनाज की बर्बादी,बढती मंहगाई का कारण


ढ़ती मंहगाई और घटती कमाई, सुनने मैं बढ़ा अटपटा लगता है लेकिन वर्तमान कि हकीकत यही है मंहगाई दिन पे दिन बढ़ रहीं है और कमाई दिन पे दिन घटती जा रही
   मंहगाई वो डायन बन कर आयी है जो कितने परिवारों को तो भुखा सुलाती है लेकिन खुद मजे से सोती है और दिन पे दिन फलती-फूलती रहती है जिसके वजह से आम आदमी परेषान रहता है कही उस पर खाने को रोटी नहीं तो कहीं पहनने को कपडा नहीं।
 पर हमारी सरकार में बैठे हमारे आदरणीय मंत्रीगणों को इस मंहगाई की मार के बारे में षायद ही पत्ता हो कि भूखें पेट सोना कितना कठिन होता है, इस मंहगाई ने आम लोगों के घर का बजट तो बिगड़ा है ही, लेकिन उससे ज्यादा हमारे आदणीय मंत्रीयों के नाक में दम कर रखा है जो इस मंहगाई से जनता को बचाना तो चाहते हैं लेकिन बचाने कि हिम्मत नहीं जुटा पा रहे।
   लेकिन प्रष्न तो ये उठता है कि ये आखिर हिम्मत क्यों नहीं जुटा पा रहे मंहगाई को कम करने कि, तो सुनिये इनका मत क्या होता है जब भी कोई रिपोर्टर इन से पूंछता है कि इस मंहगाई को कम करने के लिए आप क्या कर रहे हो ? इन पर एक ही जबाब होता है कि वैष्वीक मंदी के कारण रूपया डॉलर के मुकाबले, कम कीमत बाजार से उठा रहा है लेकिन हम फिर भी कोषिष में लगे हुए है कि मंहगाई को जल्दी ही काबू कर लेगें। हमारे आदरणीय मंत्रियों को षायद ये नहीं पता है कि हमारा देष कृशि प्रधान देष है रूपया डोलर के मुकाबले कितना भी गिर जाये लेकिन हमारे देष में कोइ भूखा सो ही नहीं सकता क्योंकि हमारे देष में आनाज 80 प्रतिषत तक पैदा होता है और जो इस बात को साफ स्पश्ट करता है कि हम भारतीय कभी भूखे सो ही नहीं सकते लेकिन वर्तमान कि धारणा कुछ ओर ही है 80 प्रतिषत आनाज पैदा होने के बावजूद भी हमारी आबादी की आधी जनता दाने-दाने को मोहताज है ये सिर्फ सरकार कि गलत नीतियों और योजनाओं के कारण ।
  लेकिन ये काग्रेसी कहां जानते हैं कि पंजाब और उत्तर प्रदेष ऐसे राज्य है कृशि की दृश्टि से,जो पूरे विष्व में न-3 पर हैं, ये आष्चर्यचकित करने वाला तथ्य हैं लेकिन सत्य यही है एक सत्य और है जो न्यूज चैनल समाचार पत्रों में बढे जोर षोर से हर साल उछलता है वो है आनाज कि लाखों टनों कि बर्बादी, और जिसकी जिम्मेदारी इस सरकार कि होती है कि वो इन आनाजों को बिगड़ने न दे और इस मंहगाई के दौर में लोगों को नौकरी न दे सके,लेकिन खाने को अनाज तो दे
लेकिन ऐसा होता ही नहीं हैं अनाज बरसात में भीग कर सड़ जाए गाय भैंस भी खाने से इनकार करती हैं तो उसे इंसान कैसे खाएगें। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी सरकार की नींद नहीं खुलती है तो ऐसी सरकार को इस बार वोट देकर क्यों चुने