Monday, 9 December 2013

मं‍हगाई को कम करने का एक उपाय

मं‍हगाई का दंश झेल रहे भारत वासियों को शायद ये पता नहीं है कि मंहगाई उनके ही कारण पैर पसार रहीं है और कुछ केन्‍द्र् की गलत रणनीतियां भी इसके के जिम्‍मेदार हैं जिनका  ठिकरा सरकार हम गरीब जनता पर डाल रही है क्‍या आपको पता है यदि मंहगाई कम करनी है तो सबसे पहले हमें कच्‍चे तेल का प्रयोग कम करना होगा। क्‍योंकि मंहगाई का सबसे बढा कारण बाजार में कच्‍चे तेल कि कीमतों में इजाफ है क्‍योंकि कच्‍चा तेल हमारी सरकार, बाहर से खरीदती है जो हमें कस्‍टम डूयूटी देकर खरीदना पडता है अर्थात एक गुना से तीन गुना मंहगा खरीदना पडता है जो हमारी सरकार आम जनता पर अतिरिक्‍‍त टैक्‍स के रूप में डाल देती है जिससे होता है कि मंहगाई दिन दूगनी रात चौगनी    
होती चली जाती है ।

और हम भी मंहगाई को बढाने में अहम भूमिका निभाते है वो ऐसे-
हम लोगों के घरों में जितने लोग है उतनी तो गाडिया है जब अपनी बडी-2 गाडियों में जब हम बाहर निकलते है तो ट्रफिक जाम होता है और हम परेशान होते है और प्रदूषण की मार अलग पर्यावरण को लगती है और उन गाडियों में पैट्रोल भरने को लोग अपनी प्रतिष्‍ठा से जोडते है जो एक प्रनिष्‍ठावान व्‍यक्ति को दर्शाता है लेकिन यही प्रतिष्‍ठावान व्‍यक्ति ही मंहगाई और प्रदूषण का कारण बन गया है

यदि हम सब एक ही गाडी का इस्‍तेमाल करे तो मंहगाई प्रदूषण और जाम से निजात पा सकते है जो वो ऐसे हमारे भारत वर्ष मे रोज 300 से ज्‍यादा गाडिया ऑन रोड आती है जिनको चलाने के लिए पैट्रोल,डीजल और सी एन जी की आवश्‍यकता पढती है जो भारत सरकार विदेशों से खरीदती है यदि हम गाडियों का इस्‍तेमाल कम कर दे तो हमें कच्‍चा तेल अंतराष्‍ट्रीय बाजार से कम खरीदना पढेगा । क्‍योंकि कच्‍चा तेल मंहगाई के बीच का वो धागा है जो जितना खीचेगा उतना ही खीचेगा  । यही एक  कारण है मंहगाई को घटाने का कि हम लोग गाडियों का कम से कम प्रयोग करे और तेल बचाने ,पर्यावरण बचाने और जाम से निजात पाने में अहम भूमिका निभाये ।

Wednesday, 27 November 2013

नय अंदाज की विचार धारा की महाभारत

स्टार प्लस चैनल पर , नए और अनूठे अंदाज में शुरू हुआ कार्यक्रम ‘‘महाभारत’’ । जोकि पूर्ण रूप से आकर्षक और भव्य सैट से सजाया हुआ है सही मायनों में तो ये काबिले तारीफ है कि इस कलेवर के साथ महाभारत उसके दर्शको को देखने को मिल रही है जो अपनी जमीन को तलाशती हुई लडी गई थी।
जितना आकर्षक इसका सैट है उतना ही आकर्षक इसके संवाद भी है क्योंकि इस महाभारत के अंतर्गत उस समाज के प्रति दिखाया और सुनाया गया संवाद जो आज भी अपनी जमीन तलाश रहा है, के प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करता है
सर्व प्रथम संवाद एकलव्य और गुरू द्रोणाचर्य के बीच दिखया गया है जो शिक्षा-दिक्षा के लिए गुरू द्रोण की मूर्ति बनाकर उनके आगे अपनी शिक्षा गृहण कर रहा था लेकिन उसके मन में इच्छा ने जन्म लिया कि गुरू द्रोण से ही शिक्षा क्यों न ली जाए लेकिन गुरू द्रोण को उसकी क्षमता को देख कर ये लगा कि यदि इस वनराज पुत्र ने यदि मेरे से शिक्षा ली तो ये विश्‍व का सर्वश्रेष्‍ठ धनुधर बन जाएगा और अर्जुन को श्रेष्‍ठ बनाने की मेरी प्रतिज्ञा अधूरी रह जाएगी लेकिन उनकी प्रतिमा के समक्ष अपना ज्ञान प्राप्त कर रहे एकलव्य से उन्‍होने उनका अंगूठा ही मांग लिया।
दूसरा संवाद कर्ण का है वो विश्‍व के श्रेष्‍ठ धनुधारी बनने की इच्छा लिए गुरू द्रोण के पास जाता है लेकिन गुरू द्रोण उसकी उससे जाति पूछते है जब कर्ण अपना परिचय देते है तो अपने अपको सूत पुत्र कहते है यह जानकर गुरू द्रोण , कर्ण को अपना शिष्‍य बनाने से इंकार कर देते हैं , जब कर्ण उनसे पुंछता है कि आप मुझे शिक्षा क्यों नहीं दे सकते तो वो कहते है कि तुम एक सूत पुत्र हो तो कर्ण क्रोद्ध के आवेश में द्रोणचार्य को खरी खोटी कहकर गुरू द्रोण के गुरू परशोराम के पास जाते है वहां भी जाति का प्रश्‍न उनके साथ जाता है गुरू परशोराम ने भी सर्वप्रथम उनकी उनकी जाति पूंछी ।लेकिन यहां कर्ण को असत्य का मार्ग चुनना पडा और गुरू परशोराम को, स्वंय को ब्रहामण कुल का कहा । और वहीं से उनकी शिक्षा-दिक्षा शुरू हुई लेकिन अंतत; गुरू परशोराम को उनकी जाति पता चल ही गई और उन्होने आर्श्‍ीवाद रूपी श्राप में उनके कठिन समय में उनके द्वारा पाया गया ज्ञान भोल जाने का श्राप दे दिया । इसी श्राप के कारण अंत में उनकी पराजय भी हुई।
  कुल मिलाकर कहा जाए तो अनुसूचित जाति के लोगो के साथ सर्वण कुल हमेशा से ही अन्याय करता आया है जो महाभारत के कर्ण और एकलव्य प्रंसग में दिखता है
स्टार प्लस पर शुरू हुई इस महाभारत में कर्ण और एकलव्य का जो संवाद दिखाया गया है वो प्रंशसा का पात्र , इन प्रंसगों के द्वारा उस कुठित समाज की कुंठा को सामने लाया गया है जो अपने समक्ष किसी शुद्र समाज की प्रतिभाओं को दबाता है और अपने आप श्रेष्‍ठ दिखाने के लिए अपने द्वारा नित नए नियमों को गढ.ता है जिससे शुद्र समाज को दबाया जा सके।
इन्ही नियमो को तोडने हेतू डा भीम राव आम्बेडकर ने अपना संपूर्ण जीवन को झौंक दिया और एक नारा दिया संघर्श करो,संगठित रहो, शिक्षित बनो
और अपने समाज की तमाम परेशानियों को देखते हुए संविधान को एक नया रूप दिया ।

Tuesday, 19 November 2013

वाह रे.......हम ओर हमारा समाज।

हम और हमारा समाज । ये है हम लोगों का कहना कि समाज के लिए ही हम है समाज चार वर्णो से संयोजित है । और उन चार वर्णो में भी बहुत असमानता है। और समान सिर्फ उसमें हम ही लोग है जिनको समाज सूत्रधार माना जाता है और हमी से समाज की पहचान होती है ।
फिर भी वर्णों की गिनती में आना वाले सबसे नीचा वर्ण ही समाज का से शोषित वर्ग है आज बदलते हुए भारत के साथ समाज भी बदल रहा है सिर्फ एक ही चीज नहीं बदल रहीं वो है वर्ण व्‍यवस्‍था ।इस बदलाव में सबसे ज्‍यादा वही समाज है जो हमेशा से शोषित होता रहा है लेकिन इस बदलाव के बाद भी हम लोग जाति सूचक जैसे शब्‍दो में विश्‍वास रखते है और किसी दलित उभरती हुई प्रतिभा को दबाने की पुरजोर कोशिश करते है लेकिन वो दब नहीं पाती ।जिसके कारण समाज उसे आज भी उसी रूप में देखता है जिसे उन्‍होने उसे उनके पूर्वजों के रूप में देखा । लेकिन इस व्‍यवस्‍था में कही हम उन दलित समाज के युवको के मौके को छिनने में पीछे नहीं हैं जिन्‍‍होने अपने आपको साबित किया है कि अब हमें कोई नहीं दबा सकता । लेकिन इस विशाल भारत की हकीकत यही है कि आज के बदलते भारत मे सबसे ज्‍यादा प्रतिभावान लोग दलित, पिछडें वर्ग और आदिवासी क्षेत्र से आते है जिन्‍होने भारत जैसे विशाल देश का नाम सर्वोपरि रखा है जिनमें इतिहास के नायक ज्‍योति राव फूले और डा भीम राव अम्‍बेडकर है जिन्‍हों के पद चिन्‍हो के द्वारा इस समाज को उसकी जमीन मिली जहां से उसने सोचना शुरू किया और अपने आप में परिर्वतन किया ।वर्तमान में इसी समाज के युवा ही हर प्रकार की सरकारी सेवा मे निहीत है लेकिन फिर भी इनको इनकी जाति से जाना जाता है ।
और शास्‍त्रों में लिखा है इंसान उसके कर्मो से जाना जाएगा नाकि उसके वर्ण। लेकिन शास्‍त्रों को बदलने की पूरी कवायद चल रहीं है 

बरहाल कुछ भी हो दलित समाज हमेशा से भारत पर छाया रहा है और आगे भी योहि छायेगा
लेकिन अब उसके सोचने का नजरिया बदल गया है अब समाज को इसी समाज के लोगो को ही बदलना होगा और अपना स्‍थान सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली दलित पीढी इस पीढा से दो-चार न हो।

Wednesday, 13 November 2013

काग्रेस का चुनावी रिर्पोट कार्ड,

 इस बार का चुनाव कुछ खास है क्‍योंकि इस बार कांग्रेस की लगातार तीन साल की जीत का सवाल है कि अब की बार कांग्रेस या कोई ओर ।

 कांग्रेस का प्रोगेसिंग कार्ड देंखे तो कांग्रेस  ने दिल्‍ली को तो कई नई चीजों से अवगत कराया है और दिल्‍ली की विकास की गति को निरंतर बनाये रखा है लेकिन कांग्रेस शासन में 15 साल रही है उस लिहाज से देखा जाए तो कही विकास दर धीमी दिखाई सी पडती है ।कि इतने साल सता में रहने के बाद भी विकास दर की  दरों में कहीं वही समरूपता देखने को मिल रहीं है जो उसे उस समय की तुलना में कहीं थोडा सा ज्‍यादा है लेकिन वो वर्तमान समय के हिसाब से नाकाफी नहीं हैं। क्‍योंकि विकास  की रफतार को जन्‍म दर की रफतार के समरूप रखना होगा । तभी जाकर ही सही ढंग से विकास सम्‍भव होगा

   ले‍किन जहां काग्रेस की विकास दर को देख तो विकास दर तो काफी धीमे दिखाई पडती है लेकिन वहीं काग्रेस के खाते में घोटालों की विकास दर, पिछले 15 सालों में बढी है जो पिछने 05 सालों में 85% की तीव्र दर से बढी है जिसका सीधा असर कांग्रेस कर प्रोगेसिंग रिर्पोट पर पडा है जिसका असर पिछले कुछ दिनों से काग्रेस के मुख्‍यालयों में भली-भांति देखा जा सकता । जिसके कारण्‍ा से रोज एक नया मंत्री मंडल चुना जाता है और बदला जाता है

 काग्रेस की सत्‍ता में मंहगाई दर की बात करे तो मंहगाई की विकास दरों ने तो सारी दरों को पीछे छोड अपना ही एक नया ही रिकार्ड जोड दिया । जो आम आदमी को तो आसुओं से रूला गई । काग्रेस तो कहती ही रह गई की हम मंहगाई दर को कांट्रोल कर लेगे । लेकिन मंहगाई दर ने ही कांग्रेस को कांट्रोल कर लिया । मंहगाई ने तो अपना एक नया रिकार्ड बना दिया जो, शायद आने वाले कई सालों में भी नहीं टूटेगा और कांग्रेस को सत्‍ता से निकलवा देगा ।

     काग्रेस के पक्ष में फिलहाल एक बात जाती दिख रही है वो सरकारी नौकरियां करने वाले लोगो को ''मंहगाई दर का भत्‍ता देना ''

 क्‍योंकि सरकारी नौकरी करने वालों का वेतनमान कांग्रेस ने ,इन 15 सालों में 65% से भी अधिक गति से बढाया है  और मंहगाई भत्‍ता भी अलग से दिया है जो आम आदमी को उसने कभी नहीं दिया । उसने प्राइवेट कंपनियों को तो दिशा निर्देश दिए लेकिन उन पर कार्यो करने को नहीं कहा ।जिससे प्राइवेट नौकरी करने वाले व्‍यक्तियों का वेतन नहीं बढा। वहीं दूसरी ओर मंहगाई ऐसी बढी जैसे कि किसी जंगल में आग तेजी से बढती है ।इस कारण से आम आदमी को आत्‍मा हत्‍या करने को मजबूर होना पढा ।

जहां कांग्रेस कर चौतरफा आलोचना हो रहीं है और उसे इस बार सत्‍ता में नहीं लाने कि कावायद चल रही है वहीं दूसरी ओर सरकारी नौकरी वाले लोग काग्रेंस को पूर्ण बहुमत से जीत दिलाने कि कोशिश्‍ा में लगे हैं।

     ब‍रहाल कुछ भी हो कांग्रेस जीते या हारे, हर हाल में पिसेगा तो आम आदमी ही जो अपने आपको कॉमन मैन कहता है और हमेशा ही पिसता है

Friday, 8 November 2013

दिल्‍ली में बसों में भीड

बसाें के धक्‍के और बसों में होती गाली गलोज, मजाक-2 में उडाते लोग मखौल,झगडा होने पर कह देना '' यार मैं तो मजाक कर रहा था तू तो बुरा मान गया''

    ये बात कर रहा मैं अपनी रोज मर्रा की जिन्‍दगी की कैंसे-2 लोग बसों में मिलते हैं और उनमें से कुछ से तो ऐसा याराना हो जाता है कि टूटता ही नहीं। लेकिन दूसरी और बसों में ऐसे भी लोग टकराते है मानो कि अपनी पत्‍नी से पीडित हों और पत्‍नी का गुस्‍सा बस में सफर कर रहे लोंगो को अपनी पत्‍नी समझ कर उतार रहा हो । कुछ लोग तो ऐसे होते है जो अपने स्‍टैंड से चढते है तो मानो कि मुंह में गोंद लेकर मुंह का चिपका लिया हो न किसी से बोलना और नाहि किसी से कोई मतलब वक्‍त पढने पर वो सबसे बोलते है कि भाई सीट के एक कोने पर हमें भी बिठा लो हम भी बहुत दूर जाएगें। ऐसे स्‍वार्थी लोग बसाें में बहुत मिलते है और दिल्‍ली की बसों में तो ऐसे लोग तो रेज में पढे मिल जाएगें जिनको अपना ही स्‍वार्थ साधना आता है
  ओर कई युवा तो ऐसे होते है बस खाली पढी हो फिर भी सफर करेंगे तो गेट पर ही लटक कर, उनसे कहो कि भाई उपर आ जा कही कोई हादसा न हो जाए तो उनका जबाब होता है कि नही होगा , अगर हो भ्‍ाी गया तो मैं ही तो भगवान के पास जाउगा । उस समय बस मैं बैठे लोग उन्‍हें समझाते भी है, बस उनका एक ही कहना होता है कि अंकल आप बेवजाह डरा रहे हो कुछ नहीं होगा
           कुछ बुढापे मैं लोग बोखला भी जाते है, कुछ  व्रद्व लोग तो ऐसे मिलते है जो लोगो कि सीट तो ले लेते है लेकिन जब वो उन्‍हे अपना बेग पकडने को कहता है तो कहते है ंकि अपना समान खुद ही संभालो ।उस समय इतना क्रोद्व आता है वो वही जानता है जिसके साथ ये होता है पर लोगो काे अब समझ आ गया कि बुढापे में लोग सठीया जाते है तो कोइ उन्‍हे कुछ भी नहीे कहता

        बसाें मे सफर करते समय आप को कुछ शकसियत ऐसी मिलेगी जाे एक बार अड गयी तो अपकी तो छुटटी ही कर देगी। हां मैं यहां उन लडकियों कि बात कर रहा हूं जो अपने को ऐसे दिखाती है जिन्‍हे देख कर भई लडको ओर आदमियों कि भी हिम्‍मत नहीं होती कि उनसे कुछ कह भी दे । क्‍योंकि भई आजकल तो लडकियों का जमाना है तो भल्‍ला कोई उन्‍हें क्‍या कह सकता है किसी में इतनी हिम्‍मत है लेकि इसके विपरीत लडकियों में हिम्‍मत है अपने से बडे जनो से बहस करने कि , उन्‍हें झाडने कि आप मुझे जानते नहीं है'' और मुझे धक्‍का क्‍यों दे रहे हो बदतमीज,, इस तरह के शब्‍दो से ल‍डकियं स्‍वागत करती हैं आजकल के आदमियों का, वो ये नहीं देखती कि किस परिस्थिति में, में धक्‍का लगा हैं उनको और झगडा शुरू कर देती है
 कुछ झगडों मे तो बात पुलिस तक भी पंहु जाती है लेकिन कुछ लोग भी एेसे मिल जाएगे बसों में जो खुद जानबुझ कर ल‍डकियों के उपर गिरते है ,, उनसे पुंछने पर वो कहते है भई माल है इस मारे गिरे उसके उपर । जिससे उसकी उस विक्रति का पता चलता है जो वो महिलाओं और लडकियों के बारे में सोचता है

        बरहाल ये कहा‍नी दिल्‍ली की उन बसों कि है जो अपने आप पर गर्व करती है कि हम से अच्‍छा कोई नहीं , लेकिन ये काफी है क्‍या


        ओर यहीं पर में अपनी बातो को विराम देता हूं अौर एक सोचने आैर इस पर कुछ करने के बारे में छोड कर जाता हूं ।

Monday, 12 August 2013

नेताओं कि करतूतों को भुगत रहा है देश

पकिस्तान ने एक बार फिर अपने कायर होने का सबूत हमारे समाने रख दिया है जो वो हर बार आपने इन सबूतों के दावों को झूठलाता है लेकिन ये सत्य है कि पाकिस्तान धोखे बाज और दगाबाजों का वो देष है जिसको सुधारने के लिए भारत ने साम दाम और प्यार मुहब्बत के सारे रास्ते आजमा कर देख लिए लेकिन फिर भी ये पाकिस्तान सुधरने का नाम ही नहीं ले रहा है लगातार उसकी काली करतूतों को देख भारत परेषान है कि इस देष का क्या किया जाए कि ये अपनी इन हरकतो से बाज आ जाए लेकिन हमारी सरकार के सारे हथकंडे फेल हो गए है फिर हमारी सरकार के आला मंत्री कोषिष में लगे है कि पाकिस्तान को समझाया जाए ।
    लेकिन इन सब के बीच पाकिस्तान हमारे सहनषीलता को आधार बनाकर हमारे घर में घुस कर हमारे अभिन्न अंगो  को काटता जा रहा है और लगातार उसमें व्द्वि हो रही है वो हमारी सीमा में घुस कर हमारे जवानेां के सर कलम करके ले जा रहा है और उसकी जवाबी कार्यवाही में हम उन से समझौते के लिए लगे हुए है लेकिन इस बात से हमारी जनता और सरकार अन्नभिज्ञ नहीे है इतना सब होने के बाद हमारी सरकार उन्हे सिर्फ चेतावनी दे रही है एक तरह से इसे हम अपनी कायरता समझे या हमारी सरकार की सहनषीलता,कि हर बार हमारे सीमा पर उन बहादुर जवानों के धड़ से षीष कट जाते है और हम लोगो इस आग में उबल रहे होते है और दूसरी और हमारी सरकार जनता को ये आष्वासन देती नज़र आती है कि हम उनसे बात कर रहें है ऐसा आखिर कब तक चलेगा, ये एक ऐसा प्रष्न है जिसके जबाव का इंतजार आज पुरा भारत कर रहा है। जहां एक तबका फेसबुक पर अपना रूश प्रकट करते दिखता है तो दूसरा सड़को पर उतर कर पाकिस्तान हॉय-हॉय के नारों को लगा रहा है लेकिन इन सब का औचित्य तभी साकार होगा जब हमारी सरकार कोई ठोस कदम उठाएगी।
    लेकिन ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है एसी वरदातों को पाकिस्तान करता रहेगा और हमारी सरकार के नेता या तो समझौते की नाकाम कोषिष में लगे रहेगे या एक दूसरे के उपर आरोप और प्रत्यारोप करके इसे मुददे को आगे की और बढने नहीें देगे और भेडिये की खाल पहने हमारे नेता हम जनता के साथ योंहि खिलवाड करते रहेगे और दिलास दे कर हमारे ज्र्र्र्रज्बे को दबा कर रख देगे ।लेकिन आज का युवा दम्भ भरता है पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब देने का लेकिन ये हमारे नेता लोग जो इस भारत को अपना राजनैतिक आखाड़ा समझ कर उसमें एक दूसरे से लड़ रहे है यदि वो इन वारदातों से चेत जाऐं तो हमारा भारत पाकिस्तान कि हर उस बरबरता पूर्ण कार्यवाही का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हो जाएगा जिसकी जरूरत है लेकिन हमारी राजनिती का ढुल-मुल रव्वैया इसे साकार नहीं होने दे  रहा है  अब जरूरत आन पड़ी है इस राजनिती के माप दंड बदलने कि और पाकिस्तान की इस बरबरता पूर्ण कार्यवाही को जवाब देने कि, यदि इतना होने पर भी हम चुप रहे तो पाकिस्तान हमारे घर में घुस कर कार्यवाही करने से भी नहीं कतराएगा। हमारा आजाद भारत एक बार फिर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा नज़र आएगा।
 अब इसमें कोई संदेह नहीं है कि अब नहीं तो फिर कभी नहीं ।

Friday, 2 August 2013

बकरीद पर मासूम बेजुबानों का क़त्ल क्या कुर्बानी है ?...................

  इन्सान से बड़ा वहशी जानवर कोई नहीं है, अगर आप इस बात से इत्तेफ़ाक नहीं
रखते तो इन्सान के खुशियों भरे त्योहारों, मान्यताओं या फिर खेलों पर नज़र
डाल लीजिये. इन्सान अपने फ़ायदे के लिए वक़्त-वक़्त पर कुदरत के तोहफ़ों को
उजाड़ता रहा है. चाहे फ़र्नीचर बनाने के लिये पेड़ काटने हों या फ़ैक्ट्रियों
के लिये जंगल के जंगल उजाड़ने हों. किसी भी जीव की हत्या करना अधर्म है।
विश्व स्तर पर इस तथ्य को भी मान्यता मिल चुकी है कि यदि लोग मांस का
सेवन नहीं करेंगे तो भूखों मरने की नौबत आ सकती है। इसके अलावा अनेक
लोगों द्वारा ऐसे तर्क भी दिये जाते हैं कि पर्यावरण एवं प्रकृति को
संन्तुलित बनाये रखने के लिये भी गैर-जरूरी जीवों को नियन्त्रित रखना
जरूरी है। उनका कहना है कि यदि इससे लोगों को भोजन भी मिले तो इसमें क्या
बुराई है।
लेकिन, गैर-जरूरी की परिभाषा भी तो ऐसे ही लोगों ने गढी है, जिन्हें मांस
भक्षण करना है।
प्रकृति के सन्तुलन को तो सबसे ज्यादा मानव ने बिगाड़ा है, तो क्या मानव
की हत्या करके उसके मांस का भी भक्षण शुरू कर दिया जाना चाहिये। तर्क ऐसे
दिये जाने चाहिये, जो स्वाभाविक लगें और व्यवहारिक प्रतीत हों।
इस्लाम धर्म में बकरीद के दिन बकरे की बलि जरूरी हो चुकी है। इन सब बातों
को रोकना असम्भव है। फिर भी संविधान प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार
व्यक्त करने की आजादी देता है। इसलिये मैं अपने विचारों को अभिव्यक्ति
देकर अपने आपको हल्का अनुभव कर रहा हूँ।
ऐसा भी नहीं है कि बकरों की हत्या सामान्य दिनों में नहीं होती है,
निश्चय ही रोज बकरों का कत्ल होता है। भारत जैसे देश में इस्लाम को मानने
वालों से कहीं अधिक वेदों और हिन्दु धर्म को मानने वाले मांसभक्षण करते
हैं। यहाँ तक कि जैन धर्म को मानने वाले भी मांस भक्षण करते हैं। श्रीमती
मेनका गांधी द्वारा संचालित 'पीपुल्स फॉर एनीमल' संगठन में काम करने वाले
भी मांसभक्षी हैं। यह मुद्दा मुझे गहरे संवेदित करता रहा है .वैदिक काल
में अश्वमेध यज्ञ के दौरान पशु बलि दी जाती थी ..आज भी आसाम के कामाख्या
मंदिर या बनारस के सन्निकट विन्ध्याचल देवी के मंदिर में भैंसों और बकरों
की बलि दी जाती है ..भारत में अन्य कई उत्सवों /त्योहारों में पशु बलि
देने की परम्परा आज भी कायम है . नेपाल में हिन्दुओं द्वारा कुछ धार्मिक
अवसरों पर पशुओं का सामूहिक कत्लेआम मानवता को शर्मसार कर जाता है . बलि
प्रथा के बारे मे सुन कर ही रोंगटे खडे हो जाते हैं,उन निरीह प्राणियों
का चीत्कार जैसे अपने मन से उठने लगता है तो सोच उभरती है कि क्या ऐसी
परंपराओं को मानने वाले इन्सान ही होते हैं? अपने स्वार्थ के लिये एक
इन्सान इतना कुछ कर सकता है? जनजागृ्ति तो फैलाई ही जानी चाहिये। जहाँ
बड़े भैंसों और ऊँट की कुर्बानी दी जाती  है ...वहां के बारे में बताया
गया कि ऊँट जैसे बड़े जानवर को बर्च्छे आदि धारदार औजारों से लोग तब तक
मारते हैं जब तक वह निरंतर आर्तनाद करता हुआ मर नहीं जाता और उसके खून
,शरीर के अंगों को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है -इस बर्बरता के
खेल को  एक बहुत छोटी और बंद जगह में देखने  हजारों की संख्या में लोग आ
जुटते हैं .प्रशासन की ओर से मजिस्ट्रेट और भारी पुलिस बंदोबस्त भी होता
है ताकि अनियंत्रित भीड़ के कारण कोई हादसा न हो जाय .  "बकरीद पर मासूम
बकरियों का क़त्ल क्या कुर्बानी है ? कहा जाता है कि अल्लाह किसी अपने
अजीज प्रिय की कुर्बानी से खुश होता है. दरअसल इससे यह सिद्ध हो जाता है
कि आप अपने मजहब के लिए क्या त्याग (कुर्बानी) कर सकते हैं.अल्लाह की
आँखों में धूल मत झोंको किसी अपने प्रिय की कुर्बानी दो तब फ़र्ज़ का क़र्ज़
चुकेगा. विडम्बना देखिये कि शाम को एक बकरी खरीदी सुबह तडफा-तडफा कर मार
डाली और कहा कि 'हो गयी कुर्बानी'. जब यह सम्पूर्ण कायनात अल्लाह की है
तो क्या यह बकरी अल्लाह की नहीं है क्या ?  हिन्दुओं के भगवान् हों या
मुसलमानों के अल्लाह इन मजबूर से बेसहारा शाकाहारी ऐसे ही सीधे सादे
प्राणीयों के क़त्ल (बलि / कुर्बानी ) से खुश होते हैं जो किसी का कुछ
नहीं बिगाड़ते, अहिंसक हैं. भगवान् की बलि और अल्लाह के नाम पर कुर्बानी
में ऊँट, बकरी,गाय जैसे सीधे सादे प्राणी ही मारे जाते
हैं,शेर,भेड़िया,कुत्ता,सूअर जैसे प्राणी क्यों नहीं ? न हिन्दू और न
मुसलमान --कोई भी मांसाहारी जानवरों की बलि या कुर्बानी क्यों नहीं देता
? शेर की कुर्बानी क्यों नहीं देते ? हो सकता है कि आप उसकी कुर्बानी /
बलि देने जाएँ और वही आपकी कुर्बानी दे दे. अहिंसक जानवरों का क़त्ल करते
हिंसक जानवर को आदमी मत कहो. . हिन्दू ठहरे कानून से डरने वाले,उन्होंने
हजारों वर्षों की बलि प्रथा को अधिकांश जगहों पर बंद कर दिया.मुसलमानों
को क़ुरबानी देने पर कोई पाबन्दी नहीं है.इस दिशा में न तो सरकार और न ही
पशुप्रेमी ही कुछ करते हुए दिखते हैं.यह इस देश का दुर्दैव है कि यहाँ
हिन्दुओं के लिए एक कानून और अन्यों के लिए अलग कानून रहते हैं.
कानून की बात छोड़ दें तो क्या मुसलामानों को यह नहीं सोचना चाहिए कि
बहुसंख्यक जिस कृत्य को अत्यंत दुखद समझते हैं ,वह नहीं करना
चाहिए?हिन्दू सहिष्णु हैं ,इसका अर्थ यह नहीं होता है कि उनको चिढाने के
लिए कुछ भी करने की इजाजत है.आखिर हिन्दुओं की सहिष्णुता की भी एक सीमा
है .वह सीमा समाप्त होने के कगार पर है.बेहतर है कि अल्पसंख्यक ऐसा कोई
भी कृत्य नहीं करें जिससे बहुसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुँचती हो..मान
लें कि समूचे विश्व में 2 अरब मुसलमान रहते हैं, जिनमें से लगभग सभी
बकरीद अवश्य मनाते होंगे। यदि औसतन एक परिवार में 10 सदस्य हों, और एक
परिवार मात्र आधा बकरा खाता हो तब भी तकरीबन 100 करोड़ बकरों की बलि मात्र
एक दिन में दी जाती है (साल भर के अलग)।

(मैं तो समझता था कि कुर्बानी का मतलब होता है स्वयं कुछ कुर्बान करना।
यानी हरेक मुस्लिम कम से कम अपनी एक उंगली का आधा-आधा हिस्सा ही कुर्बान
करें तो कैसा रहे? बेचारे बकरों ने क्या बिगाड़ा है।)

आखिर पशु भी किसी कि औलाद हैं.उन्होंने भी उसी प्रक्रिया के तहत जन्म
लिया है जिस प्रक्रिया द्वारा हम जन्में हैं.हम आज सभ्यता के विकास के
द्वारा प्रभुता की स्थिति में आ गए हैं और वे बेचारे आज भी वहीं हैं जहाँ
वर्षों-सदियों पहले थे.हमने उन्हें गुलाम बनाया,उन्हें हलों और गाड़ियों
में जोता.उनके दूध पर भी अधिकार कर लिया जो पूरी तरह से उनके बच्चों के
लिए था फिर भी वे कुछ नहीं बोले,विरोध भी नहीं किया.लेकिन प्रभुता का
मतलब यह तो नहीं कि हम उनका गला ही रेत डालें और उन्हें खा जाएँ.यह तो
उनके द्वारा सदियों से मानवता की की जा रही सेवा का पारितोषिक नहीं
हुआ.उन बेचारों को तो यह पता भी नहीं होता कि वे अंधी आस्था के नाम पर
मारे जा रहे हैं.उन्हें तो बस अपने गले पर एक दबाव भर महसूस होता है और
फिर दर्द का,भीषण दर्द का आखिरी अहसास.............

Monday, 22 July 2013

उन से नाता तोड चुका हूं

इस समाज की परछाई को 
छोड चला इस रूसवाई को 
राहों की बेगानी डगर में 
चला होकर मगन मैं
साथ न लिया किसी को मैने 
अकेला ही सफर करने चला मैं 
राहों कि इस बेगानी डगर में 
इस समाज की परछाई को छोड चला मैं
समय से पहले इन राहों का मुख मोड चला मैं 
क्‍योंकि यादों क‍ि बारातों से उब गया हूं 
उन भटकती यादों की राहों को भूल गया हूं 
राहों के शूल कि चुभन में मगन हुआ हूं 
सारी तकलीफ से अब दूर हुआ हूं 
अब रक्‍त का संचार हुआ हैं 
इन खुली वादियों से प्‍यार हुआ है 
अब नहीं देखना चाहता मुडकर 
उन बधाओं को जो रूककर कह रही 
मुड जा अपनी राहों में 
जिनको अब मैं छोड चुका हूं 
उन राहों से नाता तोड चुका हूं
इस समाज की परछाई को मैं छोड चुका हूं 
नहीं मैं जाना चाहता उन जिनको मैं भूल चुका 
अब उन से नाता तोड चुका हूं..............
                      अब उन से नाता तोड चुका हूं..................
                                  अब उन से नाता तोड चुका हूं...................




Thursday, 18 July 2013

सत्‍ता के गलियारों में जनता कि चढ रही बलि,कब तक सहेगे


बिहार राज्‍य में जो कुछ भी हो रहा है उसका जिम्‍मेदार कौन है कुछ इस प्रकार के प्रश्‍न,आज हर उस भारतीय के मन को कुरेद रहे है जिन्‍होने इस प्रकार का मिड डे मिल का कांड सुना या देखा है आज हर वो व्‍यक्ति परेशान है जिसको भारत से प्‍यार है ओर जो इस देश को अपना मानता है जिसके लिए वो हमेशा ही तैयार रहता है लेकिन कुछ अपवाद हमारी चुनी हुई व्‍यवस्‍था में कुंडली मार करके बैठे है जो मात्र  अपने सत्‍ता मे पकड बनाने हेतू किसी भी प्रकार के काम से नहीं चुकते चाहे उसमें किसी की भी जान जाए कोई मरे या जिए उन्‍हें इन बातों से क्‍या लेना वो अपनी स्‍वार्थ सिद्व के लिए किसी को भी जहर देने के लिए तैयार हैं
      बिहार में एक के बाद एक मिड डे मिल कांड ने सता में बैठे उन सत्‍ताधीशों की सच्‍चाई से पर्दा हटा दिया है जो मासूम बच्‍चों की जिन्‍दगी के साथ भी खेल सकते बशर्ते उन्‍हे उनमें फायदा दिखाई देता हो लेकिन जांच के नाम पर आपस में लडना भली-भांति जानते हैं  लेकिन उनको आम जनता के सरोकारो से क्‍या लेना-देना वो तो सिर्फ अपने वादों की खाते है और रात को चैन की नींद सो जाते है मिड डे मिल प्रकरण में उन्‍होने आदेश तो पारित कर दिए है लेकिन अब देखना ये है कि रिर्पोट कब तक आती है या आती ही नहीं ा उन्‍हे उस मां के साथ कोई सरोकार नहीं जिनकी संतान इस मिड-डे मिल का शिकार हुई क्‍योंकि हादसा हुआ बिहार में राजनीति शुरू हो गई दिल्‍ली में, सब राजनेता भूल गये उस मां कि सुध लेना जिसने अपना मासूम बच्‍चा मात्र पढाई करने के लिए भेजा था और उसको दूषित(जहर ) खाना खिलाकर मार दिया गया,इस जिम्‍मेदार वो अपने ही पडोसी पार्टी के मेम्‍बर को ठेहरा रहे है लेकिन कोई भी इस की जांच की ओर नहीं देख रहा है  लकिन ये कांड विहार में हुआ है इसके तार बीजेपी से भी जुडें जा रहे है लेकिन ऐसे ये नेता आपस मे बहस करते आरोप-प्रत्‍यारोप करते रहे तो इस शर्मनाक घटना को अजांम देने वाले लोग कहीं छूट न जांए लेकिन  सत्‍ता का चौथा स्‍तंभ जिसकी आज तारीफ करने का मन कर रहा है उसने इस पूरे प्रकरण को खोल कर रख दिया है जो अपने कर्तव्‍य को भलि-भांति निभा रहा है लेकिन इस के बावजूद भी बिहार में इस कांड के आरापियों की गिफतारी तक नहीं हुई ा अब सवाल ये उठता है कि सरकार का तो इस में कहीं हाथ नहीं क्‍योंकि इतना सब होने के बाद में भी जांच एंजेसियों के हाथ खली हैं लेकिन बिहार के मुख्‍य मंत्री को क्‍या लेना, इस अनपढ गंवार जनता से, वोट ही तो मंगना होगा वो मांग लेगें ज्ररा सा लालच देकर ,लेकिन उन बच्‍चों की सुध लेने क्‍यों जाएगे जो जहरीला खाना खा कर मर गए उनका अपना उसमें कोई नहीं था शायद ये भी एक कारण हो सकता है उन्‍हें न देखने का,लेकिन राजनेताओं को एक मुद्वा मिल गया राजनीति करने का एक दूसरे पर आरोप मड्ने का,कि भई हम होते सत्‍ता में तो ऐसा कतई नहीं होने देते ,लेकिन कब तक कहां तक  जनता इनके झूठे वादो को सच्‍च मानकर इन्‍हें सत्‍ता कि गददी पर बैठाती रहेगीा आखिर कब तक, जिस दिन इस प्रश्‍न का जवाब मिल गया तो शायद कभी आम आदमी का दम नहीं निकलेगा
       

Monday, 15 July 2013

साहित्य, संस्कृति व भाषा का अन्तरराष्ट्रीय मंच

यह सर्वविदित है कि महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पोषक थे। इसके पीछे वे तर्क देते थे कि यह व्यवस्था विश्व के अधिकांश उन्नत समाजों में देखने मिलती है। वे जाति भेद को वर्ण भेद से अलग मानते थे। वे मानते है कि वर्ण व्यवस्था में ऊँच-नीच की भेद वृत्ति नहीं है। वे मनु की तरह वर्गो को उच्च और निम्न बड़ा या छोटा नहीं मानते है।
गांधीजी के हरिजन उत्थान मुद्दे पर निम्न चार बिन्दुओं को उद्धृत किया जाता है जो इस प्रकार है-
  1. पुना पैक्ट जिसमें उन्होंने यरवदा जेल में अनशन किया था।
  2. अपनी पत्रिका का नाम हरिजन (गांधीजी का अँगरेज़ी साप्ताहिक विचार पत्र) रखना।
  3. साबरमती आश्रम में अछुत जातियों को शामिल करना।
  4. दिल्ली की एक भंगी बस्ती में कुछ दिन प्रवास करना।
यहाँ पर हमें गांधीजी के व्दारा समय समय पर किये गये इन कार्यो की एतिहासिक, सामाजिक एवं राजनीतिक पहलूओं पर चर्चा करेगें साथ-साथ अपना ध्यान इस ओर भी आकृष्ट करेगे की इस मुद्दे पर उनके विचार क्या थे तथा व्यवहारिक धरातल पर उनके विचार क्या प्रभाव छोड़ते है।
वैसे गांधी के परिप्रेक्ष्य में दलित (यहाँ हरिजन कहना उचित होगा) के विषय में चर्चा करना एक ग़ैर ज़रूरी पहलू जान पड़ता है। क्योकि दलितों का एक बड़ा समूह गांधी के हरिजन उत्थान पर किये गये कार्यो को संदेह कि निगाह से देखता है। इसका महत्वपूर्ण कारण यह है कि जाति-भेद वर्ण-भेद तथा अस्पृश्यता भेद के उनमूलन सम्बधी ज़्यादातर उनके विचार केवल उपदेशात्मक थे व्यवहारिक नहीं थे।
एक ओर वे वर्ण व्यवस्था के बारे में कहते है-वर्ण व्यवस्था का सिध्दांत ही जीवन निर्वाह तथा लोक-मर्यादा की रक्षा के लिए बनाया गया है। यदि कोई ऐसे काम के योग्य है जो उसे उसके जन्म से नहीं मिला तो व्यक्ति उस काम को कार सकता है। बशर्ते कि वह उस कार्य से जीविका निर्वाह न करे, उसे वह निष्काम भाव से, सेवा भाव से करे लेकिन जीविका निर्वाह के लिए अपना वर्णागत जन्म से प्राप्त कर्म ही करे।
यानी जिसका व्यवसाय शिक्षा देना है वो मैला उठाने का काम मनोरंजन के लिए करें (व्यवसाय के रूप में नहीं)। इसी प्रकार गाय चराने का पुश्तैनी कार्य करने वाले चाहे तो पूजा कराने का काम कर सकते हैं, लेकिन पूजा से लाभ नहीं प्राप्त कर सकते । ज़ाहिर है उच्च व्यवसाय वाला व्यक्ति निम्न व्यवसाय को पेशा के रूप में कभी भी अपनाना नहीं चाहेगा। किन्तु निम्न व्यवसाय वाला व्यक्ति उच्च व्यवसाय को अपनाने की चेष्टा करेगा। अतः यहाँ गांधी जी के उक्त कथन से आशय निकलता है कि यह बंदिश केवल निम्न जातियों के लिए तय की गई ताकी वे उच्च पेशा अपना न सके और आरामतलब तथा उच्च आय वाले पेशे पर उच्च जातियों का ही एकाधिकार रहे। यहाँ स्पष्ट है गांधी जातिगत पेशा के आरक्षण के पक्षधर थे।
कहीं-कहीं पर गांधीजी के विचार साफ़-साफ़ बुजुर्वावर्ग को सुरक्षित करने हेतु रखे गये मालूम होते है-गांधीजी के समाज में विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर, गाँव का मुन्शी, बड़ा सेनापति, छोटा सिपाही, मजदूर और भंगी सब एक से खानदानी माने जायेंगे। सबकी व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति समान होगी इससे प्रतिष्ठा या आय वृध्दि के लिए धन्ध छोड़कर दूसरा धन्धा करने का प्रलोभन नहीं रहेगा।
यानी प्रोफ़ेसर और भंगी दोनें खानदानी माने जायेगें। क्यों माने जायेगे कैसे माने जायेंगे, ये स्पष्ट नहीं है। लेकिन धन्धा बदलने की पाबंदी गांधी स्पष्ट लगाते हैं। जो आज के दौर में प्रासंगिक बिल्कुल भी नहीं है। पहले भी नहीं था। गांधी के क़रीबी एवं फ़ाईनेन्सर टाटा लुहार तो नहीं थे लेकिन लुहार का काम (व्यवसाय) करते थे। ऐसे ही कई उनके क़रीबी थे जो ग़ैरजातिगत पेशा अपनाए हुए थे। गांधी अपनी आत्मकथा में ख़ुद को एक पंन्सेरी बताते है लेकिन सियासत करते थे।
यहाँ पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराना चाहूँगा कि गांधीजी ये मानते थे कि गँवार का बेटा गँवार और कुलीन का बेटा जन्म से ही कुलीन पैदा होता है । वे कहते है कि जैसे मनुष्य अपने पूर्वजों की आकृति पैदा होता है वैसे ही वह ख़ास गुण लेकर ही पैदा होता है।
गांधीजी अछूतपन या अस्पृश्यता का तो विरोध करते हैं। लेकिन एक मेहतर को अपना व्यवसाय बदलने की अनुमति भी नहीं देते है। वे कहते है कि - अपनी संतानों के संदर्भ में प्रत्येक व्यक्ति मेहतर है तथा आधुनिक औषधि विज्ञान का प्रत्येक व्यक्ति एक चमार किन्तु हम उनके कार्य-कलापों को पवित्र कर्म के रूप में देखते है। गांधी जी पेशेगत आनुवंशिक व्यवस्था का समर्थन करते है।
वे एक स्थान पर लिखते है कि ब्राम्हण वंश का पुत्र ब्राम्हण ही होगा, किन्तु बड़े होने पर उससे ब्रामहण जैसे गुण नहीं है तो उसे ब्राम्हण नहीं कहा जा सकेगा। वह ब्राम्हणत्व से च्युत हो जायेगा, दूसरी ओर ब्राम्हण के रूप में उत्पन्न न होने वाला भी ब्राम्हण माना जायेगा यद्यपि वह स्वयं अपने लिए उस उपाधि का दावा नहीं करेगा। यानी कोई भी ग़ैर ब्राम्हण प्रकाण्ड विद्वान होने पर भी पण्डितजी की उपाधि का दावा न करे।
गांधीजी के इन आदर्शों के विपक्ष में डा- अम्बेडकर आपत्ति दर्ज़ कराते है कि जाति-पाँति ने हिन्दू धर्म को नष्ट कर दिया है। चार वर्णो के आधार पर समाज को मान्यता देना असंभव है क्योकि वर्ण व्यवस्था छेदों से भरे बर्तन के समान है। अपने गुणो के आधार पर क़ायम रखने मे यह असमर्थ है। और जाति प्रथा के रूप में विकृत हो जाने की इसकी आंतरिक प्रवृत्ति है।
ज़्यादातर यह माना जाता है कि 1932 के बाद ही गांधीजी के अंदर हरिजन प्रेम उमड़ा। इसके पहले वे निहायत ही परंपरा-पोषी एवं संस्कृतिवादी थे। भारत में दलितों के काले इतिहास के रूप में दर्ज़ यह घटना पूना पैक्ट के नाम से प्रसिध्द है। ज़्यादातर साथी पुना पैक्ट के बारे में अवगत है। दरअसल स्वतंत्रता पूर्व डॉ- अम्बेडकर की सलाह पर अँगरेज़ प्रधान मंत्री रैम्जले मैक्डोनल्ड ने 17 अगस्त 1932 में कम्युनल अवार्ड के अंतर्गत दलितों को दोहरे वोट का अधिकार दिया था। जिसके व्दारा दलितों को यह अधिकार प्राप्त होना था कि आरक्षित स्थानों पर केवल वे ही अपनी पसंद के व्यक्ति को वोट देकर चुन सकते थे तथा सामान्य सीटों पर भी वे अन्य जातियों के प्रत्याशियों को वोट देकर अपनी ताक़त दिखा सकते थे। गांधीजी इस प्रस्ताव के विरूध्द थे उन्होंने यह तर्क दिया कि इससे हरिजन हिन्दुओं से अलग हो जायेगे। उन्होंने लगभग 30 दिनों का आमरण अनशन किया। घोर दबाव में दलितों के मसीहा डॉ- अम्बेडकर को झुकना पड़ा और दलित अपने अधिकार से वंचित हो गये। इसपर जो समझौता हुआ वही आगे चलकर आरक्षण व अन्य सुविधाओं के रूप में साकार हुआ। इसे पूरा दलित समाज काले इतिहास के रूप में आज भी याद करता है।
पुना पैक्ट के संदर्भ में यरवदा जेल में हुए इस अनशन में गांधीजी जीत तो गये लेकिन उन्होंने दलितों की समस्या को काफ़ी क़रीब से देखा एवं महसूस किया। शायद उनके अंदर जलती हुई पश्चाताप का नतीज़ा ही रहा होगा कि उन्होंने अपनी हरिजन सेवक नाम की हिन्दी साप्ताहिक विचार पत्रिका प्रारंभ 1932 की तथा काफ़ी सारे लेख अस्पृश्यता पर केन्द्रित करते हुए लिखा । उन्होंने अपने आश्रम में पैखाने सफाई हेतु लगे भंगी को हटा कर पारी-पारी सभी को पैखाने सफाई कराने के निर्देश दिये। जिस पर उनका उनकी पत्नी से तक़रार भी हुई।
ऐसा कहा जाता है कि महात्मा गांधी भंगी जाति से बहुत प्रेम करते थे और उन्होंने‘हरिजन शब्द केवल भंगियों को ध्यान में रखते हुए ही इस्तेमाल करना शुरू किया था। दूसरा वाक्या अक़सर सुनाया और बार-बार दोहराया जाता है कि गांधी जी ने कहा था कि-‘यदि मेरा जन्म हो तो मै भंगी के घर पैदा होना चाहूँगा। अक्सर हरिजन नेता इन वाक्यों को गांधीजी के भंगियों के प्रति प्रेम को साबित करने के लिए सुनाते है।
एक दलील और भी दी जाती है कि गांधी जी भंगियों से प्रेम तथा उनकी हालत सुधारने के लिए ही दिल्ली की भंगी बस्ती में कुछ दिन रहे। पर वास्तव में जो सुविधाएँ उन्हे बिरला भवन या साबरमती आश्रम में उपलब्ध थी वही यहाँ उपलब्ध करायी गयी थी। गांधीजी न किसी के हाथ का छुआ पानी पीते थे और न उसके घर मे पका खाना खाते थे। अगर कोई व्यक्ति फल आदि उन्हे भेट करने के लिए लाता था तो वे कहते थे कि मेरी बकरी को खिला दो इसका दूध मै पी लूँगा।
यानी गांधीजी ख़ुद दलितों से एक आवश्यक दूरी बना कर रहे। पत्रिका हरिजन 12 जनवरी सन 1934 में वे लिखते है-‘एक भंगी जो अपने कार्य इच्छा तथा पूर्ण वफ़ादारी के साथ करता है वह भगवान का प्यारा होता है।यानी गांधीजी एक भंगी को भंगी बनाये रखने की वक़ालत करते नज़र आते है।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रसिध्द अधिकारी कर्नल सलीमन ने अपनी पुस्तक RAMBLINGS IN OUDH सफाई कर्मचारियों की 1834 की हड़तालों का ज़िक्र किया है। इस पुस्तक से ज़ाहिर है कि सफाई कर्मचारियों की हड़ताल से वे परेशान थे। परन्तु गांधीजी जो सिविल नाफ़रमानी, हड़तालों और भूख हड़ताल का अपने राजनीतिक कार्य तथा अछूतों के अधिकारों के विरूध्द इस्तेमाल करते रहे थे, भंगियों की हड़ताल के बड़े विरोधी थे।
1945 में बंबई लखनउ आदि कई बड़े शहरों में एक बहुत बड़ी हड़ताल सफाई कामगारों ने की। यदि गांधीजी चाहते तो इन कामगारों का समर्थन कर हड़ताल ज़ल्द समाप्त करवाकर इस अमानवीय कार्य में भंगियों को कुछ सुविधा दिलवा सकते थे किन्तु उन्होंने उल्टे अँगरेज़ सरकार का समर्थन करते हुए हड़ताल की निन्दा की । इस संबंध में एक लेख में वे लिखते है- सफाई कर्मचारियों की हड़ताल के ख़िलाफ़ मेरी राय वही है जो 1897 में थी जब मै डरबन (द-अफ्रीका) में था। वहाँ एक आम हड़ताल की घोषणा की गयी थी। और सवाल उठा कि क्या सफाई कर्मचारियों को इसमें शामिल होना चाहिए, मैंने अपना वोट इस प्रस्ताव के विरोध में दिया।
इसी लेख में वे बंबई में हुए हड़ताल के बारे में लिखते है- विवादों के समाधान के लिए हमेशा एक मध्यस्थ को स्वीकार कर लेना चाहिए। इसे अस्वीकार करना कमज़ोरी की निषानी है। एक भंगी को एक दिन के लिए भी अपना काम नहीं छोड़ना चाहिए। न्याय प्राप्त करने के और भी कई तरीक़े उपलब्ध है। यानी भंगियों को न्याय प्राप्त करने के लिए हड़ताल करना महात्मागांधी की दृष्टि में अवैध है।
गांधीजी मानते है कि भारत में रहने वाला व्यक्ति हिन्दू या मुसलमान, ब्राम्हण या शूद्र नहीं होगा, बल्कि उसकी पहचान केवल भारतीय के रूप में होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्ण व्यवस्था की जड़ पर कुठाराघात किये बिना अस्पृश्यता को दूर करने का प्रयत्न रोग के केवल बाहरी लक्षणों की चिकित्सा करने के समान है। छुआछूत या अस्पृष्यता और जातिभेद को मिटाने के लिए शास्त्रों की सहायता ढूँढना ज़रूर कहा जाएगा कि जब जक हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन विद्यमान रहेगी तब तक अस्पृश्यता के निराकरण की आशा नहीं की जा सकती। अतः वर्ण व्यवस्था में नई पीढ़ी की आस्था एवं श्रध्दा समाप्त करना हिन्दू समाज की मौलिक आवश्यकता है।
इस व्यवस्था के औचित्य के लिए शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करना उचित नहीं। अम्बेडकर ने कहा-शास्त्रों के आदेशों के कारण ही हिन्दू समाज में वर्ण विभाजन बना हुआ है जिसने हिन्दुओं में ऊँच-नीच की भावना उत्पन्न की है, जो अस्पृश्यता का मूल कारण है। स्पष्ट है आधुनिक युग में वर्ण विभाजन के आधार पर हिन्दू समाज का संगठन उचित प्रतीत नहीं होता।
डॉ-अंबेडकर इस बारे में आगे कहते हैं- हिन्दू समाज को ऐसे धार्मिक आधार पर पुनः संगठित करना चाहिए जो स्वतंत्रता, समता और बन्धुता के सिध्दान्त को स्वीकार करता हो। इस उद्देश्य की प्राप्ति को लिए जाति भेद और वर्ण की अलंध्यता तभी नष्ट की जा सकती है, जब शास्त्रों को भगवद मानना छोड़ दिया जाय।
आख़िर में यही कहा जा सकता है कि दलित संदर्भ में गांधी के विचार प्रासंगिता की कसौटी पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। बहुत अच्छा होता यदि महात्मा गांधी अन्य मामले की तरह दलित समस्याओं को भी प्राकृतिक न्याय की कसौटी में कस कर देखते। तथा सभी को उच्च कोटि के व्यवसाय अपनाने की आज्ञा देते। समाज में उच्च कोटि तथा निम्न कोटि के व्यवसाय दोनों की ज़रूरत समान रूप से है। फिर इनके पुश्तैनी स्वरूप को बदलने की आज़ादी गांधी क्यों नहीं देतें, क्यों उच्च जातियों के पेशे आरक्षित करने का पक्ष लेते हैं, आख़िर श्रेष्ठता का सीधा संबंध संलग्न व्यवसाय से ही है । इसकी स्वतंत्रता के बिना समाज में समानता की कल्पना करना हास्यास्पद प्रतीत होता है।
                                                                              संजीव खुदशाह के पेज से

Saturday, 13 July 2013

दलितों का इतिहास

दलित शब्‍द का शाब्दिक अर्थ है- दलन किया हुआ। इसके तहत वह हर व्‍यक्ति आ जाता है जिसका शोषण-उत्‍पीडन हुआ है। रामचंद्र वर्मा ने अपने शब्‍दकोश में दलित का अर्थ लिखा है,मसला हुआ, मर्दित, दबाया, रौंदा या कुचला हुआ, विनष्‍ट किया हुआ। पिछले छह-सात दशकों में 'दलित' पद का अर्थ काफी बदल गया है। डॉ. भीमराव अंबेडकर के आंदोलन के बाद यह शब्‍द हिंदू समाज व्‍यवस्‍था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षों से अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अब दलित पद अस्‍पृश्‍य समझी जाने वाली जातियों की आंदोलनधर्मिता का परिचायक बन गया है। भारतीय संविधान में इन जातियों को अनुसूचित जाति नाम से अभिहित किया गया है। भारतीय समाज में वाल्‍मीकि या भंगी को सबसे नीची जाति समझा जाता रहा है और उसका पारंपरिक पेशा मानव मल की सफाई करना रहा है। आज भी गांव से शहरों तक में सफाई के कार्यो में इसी जाति के लोग सर्वाधिक हैं।
    भारत में दलित आंदोलन की शुरूआत ज्योतिराव गोविंदराव फुले के नेतृत्व में हुई। ज्योतिबा जाति से माली थे और समाज के ऐसे तबके से संबध रखते थे जिन्हे उच्च जाति के समान अधिकार नहीं प्राप्त थे। इसके बावजूद ज्योतिबा फूले ने हमेशा ही तथाकथित 'नीची' जाति के लोगों के अधिकारों की पैरवी की। भारतीय समाज में ज्योतिबा का सबसे दलितों की शिक्षा का प्रयास था। ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंन दलितों के अधिकारों के साथ-साथ दलितों की शिक्षा की भी पैरवी की। इसके साथ ही ज्योति ने महिलाओं के शिक्षा के लिए सहारनीय कदम उठाए। भारतीय इतिहास में ज्योतिबा ही वो पहले शख्स थे जिन्होंने दलितों की शिक्षा के लिए न केवल विद्यालय की वकालत की बल्कि सबसे पहले दलित विद्यालय की भी स्थापना की। ज्योति में भारतीय समाज में दलितों को एक ऐसा पथ दिखाया था जिसपर आगे चलकर दलित समाज और अन्य समाज के लोगों ने चलकर दलितों के अधिकारों की कई लड़ाई लडी। यूं तो ज्योतिबा ने भारत में दलित आंदोलनों का सूत्रपात किया था लेकिन इसे समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम बाबा साहब अम्बेडकर ने किया। एक बात और जिसका जिक्र किए बिना दलित आंदोलन की बात बेमानी होगी वो है बौद्ध धर्म। ईसा पूर्व 600 ईसवी में ही बौद्घ धर्म ने समाज के निचले तबकों के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। बुद्घ ने इसके साथ ही बौद्ध धर्म के जरिए एक सामाजिक और राजनीतिक क्रांति लाने की भी पहल की। इसे राजनीतिक क्रांति कहना इसलिए जरूरी है क्योंकि उस समय सत्ता पर धर्म का आधिपत्य था और समाज की दिशा धर्म के द्वारा ही तय की जाती थी। ऐसे में समाज के निचले तलबे को क्रांति की जो दिशा बुद्घ ने दिखाई वो आज भी प्रासांगिक है। भारत में चार्वाक के बाद बुद्घ ही पहले ऐसे शख्स थे जिन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ न केवल आवाज उठाई बल्कि एक दर्शन भी दिया। जिससे कि समाज के लोग बौद्घिक दासता की जंजीरों से मुक्त हो सकें।
यदि समाज के निचले तबकों के आदोलनों का आदिकाल से इतिहास देखा जाए तो चार्वाक को नकारना भी संभव नहीं होगा। यद्यपि चार्वाक पर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं इसके बावजूद चार्वाक वो पहला शख्स था जिसने लोगों को भगवान के भय से मुक्त होने सिखाया। भारतीय दर्शन में चार्वाक ने ही बिना धर्म और ईश्वर के सुख की कल्पना की। इस तर्ज पर देखने पर चार्वाक भी दलितों की आवाज़ उठाता नज़र आता है.....खैर बात को लौटाते हैं उस वक्त जिस वक्त दलितों के अधिकारों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारत रत्न बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर ने लड़ाई शुरू कर दी थी...वक्त था जब हमारा देश भारत ब्रिटिश उपनिवेश की श्रेणी में आता था। लोगों के ये दासता का समय रहा हो लेकिन दलितों के लिए कई मायनों में स्वर्णकाल था।
  आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले हैं उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। यूरोप में हुए पुर्नजागरण और ज्ञानोदय आंदोलनों के बाद मानवीय मूल्यों का महिमा मंडन हुआ। यही मानवीय मूल्य यूरोप की क्रांति के आर्दश बने। इन आर्दशों की जरिए ही यूरोप में एक ऐसे समाज की रचना की गई जिसमें मानवीय मूल्यों को प्राथमिकता दी गई। ये अलग बाद है कि औद्योगिकीकरण के चलते इन मूल्यों की जगह सबसे पहले पूंजी ने भी यूरोप में ली...लेकिन इसके बावजूद यूरोप में ही सबसे पहले मानवीय अधिकारों को कानूनी मान्यता दी गई। इसका सीधा असर भारत पर पड़ना लाजमी था और पड़ा भी। इसका सीधा सा असर हम भारत के संविधान में देख सकते हैं। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से लेकर सभी अनुच्छेद इन्ही मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नज़र आते हैं। भारत में दलितों की कानूनी लड़ाई लड़ने का जिम्मा सबसे सशक्त रूप में डॉ. अम्बेडकर ने उठाया। डॉ अम्बेडकर दलित समाज के प्रणेता हैं। बाबा साहब अंबेडकर ने सबसे पहले देश में दलितों के लिए सामाजिक,राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की। साफ दौर भारतीय समाज के तात्कालिक स्वरूप का विरोध और समाज के सबसे पिछडे़ और तिरस्कृत लोगों के अधिकारों की बात की। राजनीतिक और सामाजिक हर रूप में इसका विरोध स्वाभाविक था। यहां तक की महात्मा गांधी भी इन मांगों के विरोध में कूद पड़े। बाबा साहब ने मांग की दलितों को अलग प्रतिनिधित्व (पृथक निर्वाचिका) मिलना चाहिए यह दलित राजनीति में आज तक की सबसे सशक्त और प्रबल मांग थी। देश की स्वतंत्रता का बीड़ा अपने कंधे पर मानने वाली कांग्रेस की सांसें भी इस मांग पर थम गई थीं। कारण साफ था समाज के ताने बाने में लोगों का सीधा स्वार्थ निहित था और कोई भी इस ताने बाने में जरा सा भी बदलाव नहीं करना चाहता था। महात्मा गांधी जी को इसके विरोध की लाठी बनाया गई और बैठा दिया गया आमरण अनशन पर। आमरण अनशन वैसे ही देश के महात्मा के सबसे प्रबल हथियार था और वो इस हथियार को आये दिन अपनी बातों को मनाने के लिए प्रयोग करते रहते थे। बाबा साहब किसी भी कीमत पर इस मांग से पीछे नहीं हटना चाहते थे वो जानते थे कि इस मांग से पीछे हटने का सीधा सा मतलब था दलितों के लिए उठाई गई सबसे महत्वपूर्ण मांग के खिलाफ में हामी भरना। लेकिन उन पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा.और अंततः पूना पैक्ट के नाम से एक समझौते में दलितों के अधिकारों की मांग को धर्म की दुहाई देकर समाप्त कर दिया गया। इन सबके बावजूद डॉ.अंबेडकर ने हार नहीं मानी और समाज के निचले तबकों के लोगों की लड़ाई जारी रखी। अंबेडकर की प्रयासों का ही ये परिणाम है कि दलितों के अधिकारों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। यहां तक कि संविधान के मौलिक अधिकारों के जरिए भी दलितों के अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई।
                                                                               
                                        यह लेख विकिपीडिया से लिया गया है